Ankhki ki Kirkire by Rabindranath Tagore Hindi novel ebook

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Ankhki ki Kirkire (आँख की किरकिरे) by Rabindranath Tagore Hindi novel ebook pdf

Ankhki Kirkire ebook
e-book novel- Ankhki ki Kirkire (आँख की किरकिरे)
Author- Rabindra Nath Tagore
Translated by- Dhanya Kumar Jain
File Format- PDF
Language- Hindi
Pages- 262
Size- 20mb
Quality- nice, without any watermark

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मेरे साहित्यकी पथ-यात्राका पूर्वापर अनुसरण करनेसे यह बात तुरत पकडाई दे जायगी कि ‘अाँखकी किरकिरी’ उपन्यास आकस्मिक है, केवल मेरे अन्दर ही नही, उस दिनके बगला साहित्य-क्षेत्रमे भी। बाहरसे कौन-सा इशारा आया था मेरे मनमे, यह प्रश्न दुरूह है। सबसे सहज जवाब यह है कि धारावाहिक लम्बी कहानियोकी माँग मासिकपत्रोकी हमेशा की भूख थी और उस भूख की पूर्तिके लिए ‘वङ्गदर्शन’ मासिकपत्रने मेरा नाम दर्ज कर लिया था। मेरा उसमें प्रसन्न समर्थन नही था, और मनमें इस बातका काफी सकोच भी था कि किसी पूर्वतन ख्यातिका उत्तराधिकार ग्रहण करना एक सङ्कट मोल लेना है। किन्तु, मेरे मनमें उपरोधअनुरोधका जहाँ भी कही द्वन्द्र हुआ है वहाँ प्राय: मै विजय नही पा सका हूँ, और अबकी बार भी वही हुआ।
हमने किसी जमानेमें ‘वङ्गदर्शन’में बकिमचन्द्रके ‘विषवृक्ष’ उपन्यासका रस-सम्भोग किया है। तबका वह रस था नवीन। बादमें उस वङ्गदर्शन’को नवीन पर्यायमें भले ही खीच लाया जाय, किन्तु उसकी पुनरावृत्ति नही हो सकती। वस्तुत फरमाइश आई थी बाहरसे। इसके पहले मैने कभी विशालकाय कहानीकी सृष्टिमें हाथ नही लगाया, छोटी-छोटी कहानियोकी उल्कावृष्टि जरूर की है। आखिर तय करना पडा कि अबकी बार कहानी गढनी होगी इस युगके कारखानेमें। शैतानके यहाँ ‘विषवृक्ष’की खेती तब भी होती थी और अब भी होती है। हाँ, उसका क्षेत्र पृथक हो सकता है, कमसे कम कहानीके इलाकेमे। इस समयकी तसवीर बहुत स्पष्ट होती है, साज-सज्जा और अलङ्कारोसे उसे आच्छन्न कर दिया जाय तो वह धुंधली बन जायगी, उसका आधुनिक स्वभाव नष्ट हो जायगा। इसीसे कहानीके लिए जब स्नेहका हठ सामने आ खड़ा हुआ और उससे अपनी रक्षा न कर सका, तो घुसना पडा मुझे मनकी दुनियाके उस कारखानेमें जहाँ लुहारकी आग और हथौडॉकी पिटाईसे दृढ़ धातुकी मूर्तियाँ सजीव हो उठती है। मानव-विधाताकी इस निर्मम सृष्टि-प्रक्रियाका वर्णन इसके पहले कहानीका अवलम्बन लेकर बगला भाषामें प्रकट नही हुआ। इसके बाद तो फिर परदा उठनेपर सदर रास्तेमें क्रमश: दिखाई दिये है ‘गोरा’ ‘घर और बाहर और ‘चतुरङ्ग’। ‘नष्टनीड़ और ‘सजा’ आदि कहानियाँ भी इसी निर्मम साहित्यके पर्यायमें ही पड़ेंगी। ‘अखिकी किरकिरी”की कहानीको भीतरसे धक्का देकर निदारुण कर डाला है माकी ईर्षाने। इस ईर्षाने महेन्द्रके उस रिपुकी कुत्सित अवकाश दिया है जो सहज-स्वाभाविक अवस्थामे इस तरह नख-दन्त नही निकालता। मानो पशुशालाका द्वार खोल दिया गया हो, और उसमेसे निकल पडी हो हिंल घटनाएँ असयत होकर। साहित्यकी नवीन पर्यायकी पद्धति घटना-परम्पराका विवरण देना नही किन्तु विश्लेषण करके उनकी अतिोकी बातको निकाल दिखाना है। वही पद्धति दिखाई दी है ‘अखिकी किरकिरी’मे – रबीन्द्रनाथ ठाकुर

इसमें सन्देह नही कि किसी भी मूल-रचनाका अधिकसे अधिक रस उसी अनुवादमे मिल सकता है जिसमे मूल-रचनाकी कथनशैली, भाषाकी गतिभङ्गिमा अर्थात् पदक्षेपके छन्द-ताल और वर्णनके रस-प्रवाहकी, जहाँ तक सम्भव हो, पूर्णतः रक्षा की गई हो। इसके लिए अनुवादकको मूलकी भाषाका ज्ञान अनुवादकी भाषासे अधिक ही होना चाहिए, कम तो हरगिज नही, और मूल-लेखकके प्रति अनुवादककी पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए, और अनुवाद करते समय अनुवादकको एक क्षणके लिए भी यह नही भूलना चाहिए कि ‘लेखक किस मानस-स्तरसे क्या कहना चाहता है, किस ढगसे कहना चाहता है, क्या उसका अभिप्रेत है, किसी भी वर्णनमें वह स्वय जितना निरासक्त है और उसके कथनमे जितनी शालीनता है उन सबकी मर्यादाका मुझसे उल्लघन तो नही हो रहा है।’ अनुवादकका यह पवित्र कर्तव्य है, और धर्म-पालनके समान इसका पालन उससे होना ही चाहिए।
रवीन्द्रनाथकी बहुत-सी रचनाओके कितने ही अनुवाद प्रचलित है, और उनमें कइयोके विषयमें मेरी धारणा थी कि अच्छे होगे, किन्तु ‘अखिकी किरकिरी’ ‘गोरा’ जैसे प्रसिद्ध उपन्यासोंके अनुवाद देखकर मुझे बड़ी निराशा हुई, और मन व्यथित होकर कह उठा, ‘मूलके साथ इनका छन्द-ताल-सुर कहाँ मिलता है !’ और उसी क्षण उसने निश्चय कर लिया कि ‘अखिकी किरकिरी’ और ‘गोरा’ आदि रचनाओके नये अनुवाद जल्दसे जल्द निकाल देने चाहिए। – धन्य कुमार जैन
Hindi Translated novel ebook Ankhki ki Kirkire

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