Chhandogya Upanishad (छान्दोग्योपनिषद्) ebook in hindi pdf

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Chhandogya Upanishad (छान्दोग्योपनिषद्) ebook in hindi pdf file
e-book name- Chhandogya Upanishad (छान्दोग्योपनिषद्)
Language- Hindi
Book genre- Religion ebook
File format- PDF
Pages- 970
Size- 18mb
Quality- best, no watermark

Chhandogya Upanishad (छान्दोग्योपनिषद्) pdf

भूमिका-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदमुच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते.
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति इन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् । एक नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तन्नमामि ॥ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ध्यानमूलं गुरोप॑तिः पूजामूलं गुरोः पदम् । मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरे। कृपा ॥
जब मेरा जन्म हुश्रा, विद्याका प्रकाश न था, अन्धकार चारों तरफ छायाथा, मार पीट मची थी, यवनों का राज था, जो चाहा सो किया, कोई किसी को पूछता न था, धर्म की जगह अधर्म, नीति की जगह अनीति, शान्ति की जगह अशान्ति फैली थी, बली निर्बली को खाये जाते, दुर्जन सज्जन को तंग करते, दीन दुःखी को दुष्ट पकड़ लेजाते, और मार मार कर उनका धन हरण करते, परमात्मा ने देखा कि अब यवनों के पूर्व कर्मफल दे चुके, उनके पाप का प्याला भरगया, उसने उसको उलट दिया, अंग्रेजी सेना देश में घुसकर फैलगई, यवनों की सेना भाग निकली. दो साल के अन्दरही अन्दर औरका और होगया. पाठशालायें बड़े बड़े नगरों में खुलगई, और लड़के पढ़ने लगे. मैंने भी अपना नाम अकबरपुर के स्कूल में लिखादिया, बाबू रामचन्द्रसेन वैद्य ने जो उस समय इन्स्पेक्टर स्कूलों के थे मेरी परीक्षा ली, मुझको पढ़ने में तीन पाकर अंग्रेजी अक्षर का प्रारम्भ करादिया. बहुत दिनों तक छिपा छिपा कर अंग्रेज़ी पढ़ता रहा, जय अकबरपुर के स्कूल की अन्तिम परीक्षा में उत्तीर्ण होगया, तब फ़ैजाबाद के स्कूल को भेजा गया. वहां से श्रीअयोध्याजी को अकसर हर रविवार को जाता, और जो बड़े बड़े महात्मा बाबा माधोदास, बाबा रघुनाथदास, बाबा जुगलासरन, और पण्डित उमादत्त तिवारीजी के नाम से प्रसिद्ध थे, उनका दर्शन करता, और उनके प्रसाद करके मेरी उपासना श्रीहनुमानजी में जमी, और तत्पश्चात् राम में. जब मैं डाकखानेजात गोंड़ा बहरायच का इन्स्पेक्टर हुश्रा, मेरी श्रद्धा राम और कृष्ण में बढ़ गई, तुलसीकृत रामायण को पढ़ता, और सत्यनारायण की कथा सुनता. मुझको एकबार ऐसा संशय उत्पन्न हुआ कि जो मांस खाते हैं वह नरक को प्राप्त होते हैं. यह शङ्का दिन प्रतिदिन बढ़ती गई, और दिन प्रतिदिन पण्डितों करके दृढ़ होती गई. एक परमहंस गोंडा में
आये, और जब मैं उनके पास गया, और अपनी शङ्का को प्रकट किया उसपर वह बहुत हँसे, और कहने लगे कि मांस मदिरा खा कर न कोई नरक को जाता है, और न खा करके कोई स्वर्ग को जाता है; जो कुछ खाया जाता है वह मलमूत्र होकर निकल जाता है; और सात वर्ष के पीछे स्थूलशरीर औरका और होजाता है, तुम अपने स्वरूप के जानने के लिये पुरुषार्थ करो. जो कुछ उपदेश दिया करते उसको सुना करता, परन्तु अपने स्वरूपकज्ञान को न प्राप्त हुआ. कुछ काल के पीछे मैं लखनऊ को बदल पाया. और रामगीता के ऊपर पण्डित यमुनाशङ्कर वेदान्ती करके रचित टीका को देखा. जी फरक उठा, और विचार किया कि जो इस टीका का करर्ता है वह अवश्य विज्ञानी होगा. उनका खोज करने लगा, कुछ काल के पीछे उनका दर्शन मिला, मेरी अटल श्रद्धा उनके चाक्य में, और उनकी प्रतिकृपा मेरे ऊपर ऐसी हुई कि यावत संशय थे सब नष्ट होगये, और मेरा आत्मा हस्तामलकवत् मुझ को दीखने लगा. अब मैं स्वस्वरूप में स्थित हूं ।
हे प्रिय पाठको संस्कृतविद्या को भली प्रकार न जानने से विना सहायता किसी पण्डित के संस्कृत ग्रन्थों के विचार में मुझ को बड़ा अर्चन पड़ा करता था, सोचते सोचते यह विचार में पाया कि यदि ऐसी कोई टीका की जाय कि जिसके द्वारा विना सहायता किसी पण्डित के जो हानि होरही है वह दूर होजाय. जब इस निकाली हुई श्रेणी को दो चार विद्वानों ने पसन्द किया, तब तदनुसार टीका का रचना प्रारम्भ किया गया. भगवद्गीता, रामगीता, अष्टावकगीता,सांख्यकारिका, विष्णुसहस्रनाम, परापूजा, ईष, केन, कठ, माण्डूक्य, मण्डुक, प्रश्न, ऐत्तरेय, तैत्तिरीय की टीका इसी ढंगपर की गई जो सबको प्रिय लगती है.
जब मैं हरिद्वार को संवत् १९७१ में गया तब कई एक साधु मुझ से मिले, और इच्छा प्रकट की कि यदि छान्दोग्योपनिषद् की टीका इसी श्रेणीपर और ऐसीही सरल मध्यदेशी भाषा में कर दिया जाय तो लोगों का बड़ा कल्याण हो. मैंने उनसे कहा कि मैं वाक्यदानका प्रदान तो नहीं करता हूं, पर यदि अपने अन्तःकरण प्रवेशित परमात्मा की प्रेरणा होगी तो बशर्त अवकाश काल व जीवन प्रयत्न करूंगा. वहां से वापिस आनेपर पण्डित गङ्गाधर और पण्डित महावीरप्रसाद और अंग्रेज़ी में अनुवाद किये हुये ग्रन्थों की सहायता करके छान्दोग्योपनिषद् की टीका की, निर्विन समाप्ति हुई. जिसके लिये मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूं, हे पाठकजनो ! जैसे सामवेद गान करके पढ़ा जाता है, वैसेही यह छान्दोग्योपनिषद्
भी गाकर पढ़ाजाता है वह बाह्यफल स्वर्गादिक को देता है, और यह अभ्यन्तर फल ब्रह्मज्ञान उत्पन्न करके जीवात्मा को अजर अमर बना देता है, और जीव ईश्वर के भेदको हटाकर दोनों को ऐक्य कर देता है.
हे पाठकजनो ! शङ्कराचार्यजी ने उपनिषद् का अर्थ इस प्रकार किया है, “उप, नि, षद्” उपका अर्थ समीप, नि का अर्थ अत्यन्त, और पद का अर्थ नाश, अतः संपूर्ण “उपनिषद्” शब्द का अर्थ यह हुआ कि जो जिज्ञासु श्रद्धा और भक्ति के साथ उपनिपदों के अत्यन्त समीप जाता है, यानी उनका विचार करता है, वह
आवागमन के क्लेशों से निवृत्त होजाता है, और किंसी किसी प्राचार्यों ने इसका अर्थ ऐसा भी किया है. उप=समीप, नि=अत्यन्त, और पद-बैठना, यानी जो जिज्ञासु को अध्ययन अध्यापन के द्वारा ब्रह्म के अतिसमीप बैठने के योग्य बना देता है वह उपनिषद् कहा जाता है.
हे पाठकजनो ! सृष्टि रचने के पहिले सृष्टि उत्पत्ति निमित्त जब ईश्वर में इच्छा उठती है तो एक बड़ा घोरशब्द अर्थरहित गूंज के साथ निकलता है, जैसे अंजन में होता है, और वह बड़ी देरतक रहता है, उस शब्द को सुनकर जो जीवन्मुक्त ऋषि होते हैं, वे ॐ, अथवा अ, उ, म, में आरोप कर लेते हैं, और जब वह शब्द फट जाता है तब उसमें से श्राकाश, वायु, अग्नि, जल,
और पृथ्वी सूक्ष्मरूप से निकल आते हैं, और वह शब्द शान्त होकर लोप होजाता है. इन पांच तत्त्वों करके संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है, इसलिये जो कुछ सृष्टि है सब रूपही है. इस कारण ॐकार की उपासना अतिश्रेष्ठ है, यह ईश्वर का प्रथम नाम है, जो इन तीन अ, उ, म, अक्षरों के अर्थ को समझकर और इन्हीं में विश्व, तैजस, प्राज्ञ, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, जीव, हिरण्यगर्भ, ईश्वर को आरोप करके भजता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, और आवागमन से रहित होजाता है. यही कारण है कि इस छान्दोग्योपनिषद् में प्रथम उपासना उद्गीथ की है, इस उपनिषद् के दो खण्ड हैं, एक पूर्वार्ध है, जिसमें सगुण ब्रह्मकी उपासना है, और तिसका फल ब्रह्मलोक की प्राप्ति कहा है,
और दूसरा उत्तरार्ध है, जिसमें प्राण की उपासना, पञ्चाग्निविद्या, वैश्वानरविद्या, भूमाविद्या, और दहराविद्या की ज्येष्ठता, श्रेष्ठता का निरूपण कियागया है, इनके विचार करके यह जीवात्मा ही ब्रह्म है, ऐसा हस्तामलकवत् अनुभव में दीखने लगता है, यह उपनिषद् दुःखका नाशक और श्रानन्द का उत्पादक है.
हे पाठकजनो ! इस टीका में पहिले मूलमन्त्र दिया है, फिर पदच्छेद, फिर वाम अङ्गकी ओर संस्कृत अन्वय, और दाहिने अंग की ओर पदार्थ, यदि वाम अंगकी ओर का लिखाहुश्रा ऊपर से नीचे तक पढ़ा जावे तो संस्कृत अन्वय मिलेगा, यदि दहिने अंग का लिखा हुश्रा ऊपर से नीचेतक पढ़ा जाधे तो पूरा अर्थ मन्त्रका मध्यदेशी भाषा में मिलेगा, और यदि बायें तरफ से दहिने तरफ को पढ़ा जावे तो हरएक संस्कृत पदका अथवा शब्द का अर्थ भाषा में मिलेगा. जहांतक होसका है हरएक संस्कृत पद का अर्थ विभक्ति के अनुसार लिखा गया है, इस टीका के पढ़ने से संस्कृत विद्याकी उन्नति उनको होगी, जिनको संस्कृत की योग्यता न्यून है, मन्त्र का पूरा पूरा अर्थ उसीके शब्दों सेही सिद्ध किया गया है, अपनी कोई कल्पना नहीं की गई है, हां कहीं कहीं संस्कृत पद मन्त्र के अर्थ स्पष्ट करने के लिये ऊपर से लिखा गया है, और उसके प्रथम यह चिह्न लगा दिया गया है, ताकि पाठकजनों को विदित हो जावे कि यह पद मूलका नहीं है.
विद्वान् सज्जनों की सेवा में प्रार्थना है कि यदि कहीं अशुद्धि हो, अथवा अर्थ स्पष्ट न हो तो कृपा करके उसको ठीक करलें, और मेरी भूल चूक को क्षमा करें, और शुद्ध अन्तःकरण से आशीर्वाद दें कि यह मुझ करके रचित टीका मुमुक्षुजनों को यथोचित फलदायक हो, और इसकी स्थिति चिरकालपर्यन्त बनी रहै. -लाला शिवदयालसिंहात्मज

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