Darshan Digdarshan (दर्शन दिगदर्शन) by Rahul Sankrityayan Hindi Book pdf file
e-book name- Darshan Digdarshan (दर्शन दिगदर्शन)
Author name- Rahul Sankrityayan
Language- Hindi
File format- PDF
PDF size- 88mb
Pages- 889
Quality- good, no watermark
मानवका अस्तित्व पृथ्वीपर यद्यपि लाखों वर्षोंसे है, किन्तु उसके दिमाग की उड़ानका सबसे भव्य-युग ५000-६000 है, जब कि उसने खेती, नहर, सौर-पंचांग आदि-आदि कितने ही अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा समाजकी कायापलट करनेवाले आविष्कार किए। इस तरहकी मानवमस्तिष्ककी तीव्रता हम फिर १७६० ई० के बादसे पाते हैं, जब कि आधुनिक आविष्कारोंका सिलसिला शुरू होता है। किन्तु दर्शनका अस्तित्व तो पहिले युगमें था ही नहीं, और दूसरे युगमें वह एक बूढ़ा बुजुर्ग है, जो अपने दिन बिता चुका है; बूढ़ा होनेसे उसकी इज्जत की जाती जरूर है, किन्तु उसकी बात की ओर लोगोंका ध्यान तभी खिचता है, जब कि वह प्रयोगआश्रित चिन्तन-साइंस-का पल्ला पकड़ता है। यद्यपि इस बातको सर राधाकृष्णन् जैसे पुराने ढरेंके ‘धर्म-प्रचारक” मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उनका कहना है ‘प्राचीन भारतमें दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कलाका लग्गूभग्गू न हो, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा है।” भारतीय दर्शन साइंस या कलाका लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्मका लग्गू-भग्गू तो वह सदासे चला आता है, और धर्मकी गुलामीसे बदतर गुलामी और क्या हो सकती है?
३०००-२६०० ई० पू० मानव-जातिके बौद्धिक जीवनके उत्कर्ष नहीं अपकर्षका समय है; इन सदियोंमें मानवने बहुत कम नए आविष्कार किए। पहिलेकी दो सहस्राब्दियोंके कड़े मानसिक श्रमके बाद १000-७00 ई० पू० में, जान पड़ता है, मानव-मस्तिष्क पूर्ण विश्राम लेना चाहता था, और इसी स्वप्नावस्थाकी उपज दर्शन है; और इस तरहका प्रारंभ निश्चय ही हमारे दिलमें उसकी इज्जतको बढ़ाता नहीं घटाता है। लेकिन, दर्शनका जो प्रभात है, वही उसका मध्याह्न नहीं है। दर्शनका सुवर्णयुग ७०० ई० पू० से बादकी तीन और चार शताब्दियाँ हैं, इसी वक्त भारत में उपनिषद्से लेकर बुद्ध तकके, और यूरोपमें थेल्ससे लेकर अरस्तू तकवे दर्शनोंका निर्माण होता है। यह दोनों दर्शन-धाराएँ आपसमें मिलकर विश्वकी सारी दर्शन-धाराओंका उद्गम बनती हैं-सिकन्दरके बाद किस तरह यह दोनों धाराएँ मिलती हैं, और कैसे दोनों धाराओंका प्रतिनिधि नव-अफलातूनी दर्शन आगे प्रगति करता है, इसे पाठक आगे पढ़ेंगे। दर्शनका यह सुवर्णयुग, यद्यपि प्रथम और अन्तिम आविष्कारयुगोंकी समानता नहीं कर सकता, किन्तु साथ ही यह मानव-मस्तिष्ककी निद्राका समय नहीं था। कहना चाहिए, इस समयका शक्तिशाली दर्शन अलगथलग नहीं बल्कि एक बहुमुखीन प्रगतिकी उपज है। मानव-समाजकी प्रगति के बारेमें हम अन्यत्र’ बतला आए हैं, कि सभी देशोंमें इस प्रगतिके एक साथ होनेका कोई नियम नहीं है। ६०० ई० पू० वह वक्त है, जब कि मिश्र, मसोपोतामिया और सिन्धु-उपत्यकाके पुराने मानव अपनी आसमानी उड़ानके बाद थककर बैठ गए थे; लेकिन इसी वक्त नवागंतुकोंके मिश्रणसे उत्पन्न जातियाँ-हिन्दू और यूनानी-अपनी दिमागी उड़ान शुरू करती है। दर्शन-क्षेत्र में यूनानी ६००-३०० ई० पू० तक आगे बढ़ते रहते हैं, किन्तु हिन्दू ४०० ई० पू० के आसपास थककर बैठ जाते हैं। यूरोपमें ३०० ई० पू०में ही अँधेरा छा जाता है, और १६०० ई० में १९ शताब्दियोंके बाद नया प्रकाश (पुनर्जागरण) आने लगता है, यद्यपि इसमें शक नहीं इस लंबे कालकी तीन शताब्दियों-९००-१२०० ई०-में दर्शनकी मशाल जलती रहती है, और पीछे उसीसे आधुनिक यूरोप अपने दर्शनके प्रदीपको जलानेमें सफल होता है। उधर दर्शनकी भारतीय शाखा ४०० ई० पू० की बादकी चार शताब्दियोंमें राखकी ढेर में चिंगारी बनी पड़ी रहती है। किन्तु ईसा की पहिलीसे छठी शताब्दी तक-विशेषकर पिछली तीन शताब्दियोंमेंवह अपना कमाल दिखलाती है। यह वह समय है, जब कि पश्चिम में दर्शनकी अवस्था अब्तर रही है। नवींसे बारहवीं सदी तक भारतीय दर्शन इस्लामिक दर्शनका समकालीन ही नहीं समकक्ष रहता है,किन्तु उसके बाद वह ऐसी चिरसमाधि लेता है, कि आजतक भी उसकी समाधि खुली नहीं है। इस्लामिक दर्शनके अवसानके बाद यूरोपीय दर्शनकी भी यही हालत हुई होती, यदि उसने सोलहवीं सदीमें’ धर्मसे अपनेको मुक्त न किया होता।-सोलहवीं सदी यूरोपमें स्कोलास्तिक-धर्मपोषक-दर्शनका अन्त करती है, किन्तु भारतमें एकके बाद स्कोलान्तिक दाकतर पैदा होते रहे हैं, और दर्शनकी इस दासता को वह गर्वकी बात समझते हैं। यह उनकी समझमें नहीं आता, कि साइंस और कलाका सहयोगी बननेका मतलब है, जीवित प्रकृति-प्रयोग—का जबर्दस्त आश्रय ग्रहणकर अपनी सृजनशक्तिको बढ़ाना, जो दर्शन उससे आजादी चाहता है, वह बुद्धि, जीवन और खुद आजादीसे भी आजादी चाहता है। विश्वव्यापी दर्शनकी धाराको देखनेसे मालूम होगा, कि वह राष्ट्रीयकी अरोक्षा अन्तर्राष्ट्रीय ज्यादा है। दार्शनिक विचारोंके ग्रहण करने में उसने स्वीकार करने में। यह कहना गलत होगा, कि दर्शनके विचारोंके पीछे आर्थिक प्रश्नोंका कोई लगाव नहीं था, तो भी धमोंकी अपेक्षा वह बहुत कम एक राष्ट्रके स्वीर्थको दूसरेपर लादना चाहता रहा; इसीलिए हम जितना पूर्ण समागम दर्शनोंमें पाते हैं, उतना साइंसके क्षेत्रमे अलग कहीं नहीं पाते। हमें अफसोस है, समय और साधनके अभावसे हम चीन-जापान की दार्शनिक धाराको नहीं दे सके; किंतु वैसा होनेपर भी इस निष्कर्षमें तो कोई अन्तर, नहीं पड़ता कि दर्शनक्षेत्र में राष्ट्रीयताकी तान छेड़नेवाला खुद घोखेमें है और दूसरोंको धोखेमें डालना चाहता है।मैंने यहाँ दर्शनको विस्तृत भूगोलके मानचित्रपर एक पीढ़ीके बाद दूसरी पीढ़ीको सामने रखते हुए देखनेकी कोशिश की है, मैं इसमें कितना सफल हुआ हूँ, इसे कहनेका अधिकारी मैं नहीं हैं। किन्तु मैं इतना जरूर समझता हूँ, कि दर्शनके समझनेका यही ठीक तरीका है, और मुझे अफसोस है कि अभी तक किसी भाषामें दर्शनको इस तरह अध्ययन करनेका प्रयत्न नहीं किया गया है।-लेकिन इस तरीकेकी उपेक्षा ज्यादा समय तक नहीं की जा सकेगी, यह निश्चित है।
पुस्तक लिखनेमें जिन ग्रंथोंसे मुझे सहायता मिली है, उनकी तथा उनके लेखकोंकी नामावली मैंने पुस्तकके अन्तमें दे दी है। उनके ग्रंथोंका मैं जितना ऋणी हैं, उससे कृतज्ञता-प्रकाशन द्वारा मैं अपनेको उऋण नहीं समझता-और वस्तुत: ऐसे ऋणके उऋण होनेका तो एक ही रास्ता है, कि हिन्दीमें दर्शनपर ऐसी पुस्तकें निकलने लगें, ‘दर्शन-दिग्दर्शन” को कोई याद भी न करे। प्रत्येक ग्रंथकारको, मैं समझता हूँ, अपने ग्रंथके प्राप्त यही भाव रखना चाहिए।-अमरता? बहुत भारी भ्रमके सिवा और कुछ नहीं है। आनंद कौसल्यायन और पंडित उदयनारायण तिवारी, एम०ए०, साहित्यरत्नने सहायता की है, शिष्टाचारके नाते ऐसे आत्मीयोंको भी धन्यवाद देता हूँ।- राहुल साकृत्यायन
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Darshan Digdarshan (दर्शन दिगदर्शन)
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