Geet-Panchshati (गीत-पञ्चशती) by Rabindra Nath Tagore Hindi ebook pdf
e-book name- Geet-Panchshati (गीत-पञ्चशती)
Author name- Rabindra Nath Tagore
Language- Hindi
File format- PDF
Size- 19mb
Pages- 426
Quality- excellent, without any watermark
देवनागरी लिपि में ५०० चुने हुए गीत
सम्गादिका- इन्दिरा देवी चौधुराणी
इस पुस्तक में रवीन्द्रनाथ के पाँच-सौ गीतों का संकलन किया गया है। कुछ वर्ष हुए बँगला मासिक पत्र प्रवासी’ के तीन अंकों में रवीन्द्र-संगीत के अनुरागियों द्वारा चुने हुए तीन सौ गीत ‘रवीन्द्रसंगीत-सार’ नाम से प्रकाशित हुए थे। उन्होंको आधार मानकर उनमें दो सौ गीत और जोड़ देना बहुत कठिन नहीं था। तिस पर श्री शान्तिदेव घोष के सौजन्य से स्वयं कविगुरु द्वारा निर्वाचित तीन सौ गीतों की एक अप्रकाशित तालिका, मिल गई, जिसे पाकर मैंने अपने को कृतार्थ अनुभव किया। अन्यान्य विषयों में भी यदि श्री शान्तिदेव की सद्बोचहीन सहायता न मिलती तो पाँच सौ गीतों की वर्तमान चयनिका तैयार करना मुझ अकेली के लिए सम्भव न होता। ‘संचयिता’ के गीतांश से भी कुछ गीत उद्धृत किये गए हैं। साथ ही श्री सौम्येन्द्रनाथ ठाकुर और श्रीमती नन्दिता कृपालानी के द्वारा भेजी हुई दो तालिकाओं ने भी गीतों के चयन में हमारी सहायता की है।
इन गीतों का नागरी लिपि में लिप्यन्तर किया गया है और भारत में प्रचलित प्रधान-प्रधान भाषाओं में इन्हें अनूदित भी किया गया है। स्वर-लिपि के बिना गीत का परिपूर्ण रस ग्रहण करना तो असम्भव ही जान पड़ता है; आशा है शीघ्र ही यह अभाव भी दूर किया | जा सकेगा। अवश्य ही कवि के गीतों को स्वर के बिना केवल कविता के रूप में ही पढ़कर आनन्द प्राप्त करने वाले रसिक भी मुझे मिले हैं। यूरोप में यह समस्या ही नहीं उठती, कारण वहाँ गीतकार आम तौर पर स्वर-लिपि के साथ ही अपने गीत प्रकाशित किया करते हैं। इसमें एक और बड़ी सुविधा यह होती है कि स्वर के सम्बन्ध में किसी प्रकार के मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। गायक का अपना कृतित्व केवल सामान्य गायकी के तारतम्य में ही प्रकट होता है। पश्चिमी देशों में रचयिता प्रधान होता है, पूर्व में गायक। इस संकलन में हमने कविगुरु के अपने श्रेणी-विभाजन की ही रक्षा की है। वैसे सम्भव है, कई बार हमें ऐसा लगे कि एक ही गीत अन्य श्रेणी में भी पड़ सकता है। और फिर भगवत्-प्रेम तथा मानवीय प्रेम के बीच सीमा-रेखा खींचना कठिन भी है।
नीचे दी हुई सूची से प्रत्येक श्रेणी के गीतों की संख्या और उनका रचना-काल स्पष्ट समझ में आ जायगा। जिन गीतों का रचना-काल निश्चित रूप से ज्ञात है, उन्हींकी तारीखें दी गई हैं, बाक़ी अधिकांश गीतों की तारीखें प्रथम प्रकाशित पुस्तक के अनुसार रखी गई हैं।
विषय संख्या रचना-काल (ईसवी सन् के अनुसार)
१ पूजा २ प्रेम ३ प्रकृति ४ स्वदेशी ५ विचित्र ६ आनुष्ठानिक
कवि की जीवनी से जिनका तनिक भी परिचय है, उन्हें मालूम होगा कि कवि के प्रथम संगीत-जीवन पर उनके बड़े भाई’नतुन दादा’ या नये भैया-ज्योतिरिन्द्रनाथ का प्रभाव कितनी दूर तक पहुँचा था। पियानो के सामने बैठकर ज्योतिरिन्द्रनाथ हल्की गतें रच रहे हैं और एक ओर रवीन्द्रनाथ तथा दूसरी ओर ठाकुरपरिवार के सहृदय मित्र अक्षय चौधुरी सुर पर शब्द बिठाते जा रहे हैं, यह चित्र भी रवीन्द्र-भक्तों के निकट सुपरिचित है। इन्हीं हल्की गतों का स्वर रवीन्द्रनाथ ने ‘भानुसिंहेर पदावली’ आदि प्रारम्भिक रचनाओं में बिठाया है और हम लोगों ने भी वही सीखा है। इससे भी पहले अपने ही परिवार के सदस्यों के बीच जो नाटघसंगीत रचित और अभिनीत होता था, उसकी रचना में भी रवीन्द्रनाथ का हाथ अवश्य था; अलबत्ता वह कुछ इस प्रकार मिल-जुलकर तैयार किया जाता था कि उसमें कौन-सी रचना विशेषतया कविगुरु की थी, आज यह कह सकना हमारे लिए कठिन हो पड़ा है। कलकत्ता के जोड़ासाँको मुहल्ले में स्थित कवि के पैतृक आवास में उन दिनों और भी एक स्थायी सांगीतिक आबहवा बहती थी, जिसे याद रखना जरूरी है। यह था शास्त्रीय हिन्दुस्तानी संगीत का वातावरण, जिसे आजकल बंगाल में उच्चांग संगीत कहा जाता है। कवि के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ शास्त्रीय संगीत के बड़े भक्त थे। उनके यहाँ संगीत के बड़े-बड़े उस्तादों का आना-जाना और ठहरना बराबर लगा ही रहता था। रवीन्द्रनाथ के अग्रजगण किस प्रकार कन्धे पर तम्बूरा साध कर इन सब उस्तादों के निकट बाक़ायदा रियाज किया करते थे, यह वे स्वयं ही लिख गए हैं। यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने, जिसे बँगला में ‘नाड़ा बेंधे’ (गण्डा-ताबीज बाँध कर) सीखना कहते हैं, उस प्रकार नियमित रूप से किसीकी शागिर्दी अस्तियार नहीं की, फिर भी स्वाभाविक रूप से आस-पास के वातावरण से शास्त्रीय संगीत का रस अवश्य ग्रहण किया, जैसे पेड़ एक जगह खड़ा रहकर भी आकाश-वातास और धरती से अपने प्राणों के उपकरण संग्रह कर लेता है। उस्तादों में यदु भट्ट, मौलाबख्श और बाद में राधिका गोसाई का नाम लिया जा सकता है। उनके प्रारम्भिक दिनों में विष्णुराम चक्रवर्ती का नाम भी उल्लेखनीय है। बचपन में राइपुर के श्रीकण्ठ सिंह के पास भी उन्होंने कुछ संगीत सीखा था। श्रीकण्ठ बाबू गायन के पीछे पागल थे । कवि की संगीत-कुशलता का इतना इतिहास देना शायद जरूरी है, कारण प्रतिभाशाली व्यक्ति भी अचानक आकाश से नहीं टपकते और न धरती को भेदकर अकस्मात् बाहर आ निकलते हैं। वास्तव में जिस वृक्ष की जड़ें दूर-दूर तक फैली थीं, रवीन्द्रनाथ उसीकी उच्चतम शाखा में खिले हुए सर्वोत्तम फूल थे।
एक बार कवि ने बहुत बचपन में अपने मंझले भाई-मेरे पितृदेवसत्येन्द्रनाथ के साथ कुछ दिन अहमदाबाद में बिताए। वहीं उन्होंने पहली बार स्वतन्त्र रूप से अपने गीतों में आप ही स्वर भरे। जैसे, ‘क्षुधित पाषाण’ कहानी के विख्यात शाहीबाग के प्रासाद की छत पर चाँदनी में टहलते-टहलते रचा हुआ गीत ‘नीरव रजनी देखो मग्न जोछनाय’ : देखो, नीरव रात चाँदनी में डूबी है-इत्यादि। बाद में सत्रह वर्ष की उम्र में मेंझले भैया के साथ ही रवीन्द्रनाथ बैरिस्टरी पढ़ने के लिए विलायत गए। इसे देश का परम सौभाग्य ही कहना चाहिए कि इस उद्देश्य की साधना के पथ पर वे अधिक दूर अग्रसर नहीं हुए। अपने मधुर कण्ठ के बल पर उन्होंने काफ़ी प्रसिद्धि भी पाई। किन्तु आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद उनके सुरों में विलायती संगीत का कुछ खास प्रभाव देखने में नहीं आता। यों विलायत से लौटने पर उन्होंने पहले-पहल जिन दो गीति-नाटिकाओं (काल मृगया’ और ‘वाल्मीकि-प्रतिभा’) की रचना की उनमें अवश्य कुछएक विलायती सुर बिलकुल सदेह उठाकर बिठा दिए गए हैं। पीछे भी उद्दीपना और उल्लास के कई सुरों पर विलायती संगीत का थोड़ा-बहुत प्रभाव देखने में आता है।
कवीन्द्र के लगभग दो हजार गीतों के सम्बन्ध में जब भी किसी प्रकार की कोई आलोचना की जाती है, तब यह जरूरी हो जाता है। कि उन्हें अलग-अलग भागों में बाँट लिया जाय। इस तरह का विभाजन बहुत लोगों ने बहुत प्रकार से किया है। एक विभाजन मेरा अपना भी है, जिसका एक साधारण नक्शा यहाँ दिया जाता है। मेरा विनम्र विश्वास है कि इसमें सभी पहलुओं की रक्षा की गई है और शायद कुछ अधिक संहत रूप में उक्ति और स्वर की दृष्टि से रवीन्द्र-संगीत का श्रेणी-विभाजन।
१. सुर और शब्द दोनों अपने २. शब्द अपने सुर दूसरे ३. सुर अपना शब्द दूसरे के
शब्द अथवा उक्ति को भी अलग-अलग भाषा और भाव-प्रकाशन के अनुसार विभिन्न भागों में बाँटा जा सकता है। इसी प्रकार समस्त गीतों को शास्त्रीय हिन्दुस्तानी संगीत की विभिन्न श्रेणियों के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। रचना-काल की दृष्टि से भी रवीन्द्रसंगीत का विभाजन बहुतों ने किया है, जैसे प्रारम्भिक काल, मध्यकाल और परवर्ती काल । इससे कवि के क्रमिक संगीत-विकास को समझने में भी सुविधा होती है। रवीन्द्रनाथ स्वयं ही कहते थे कि उनके शुरू के गीत ‘ऍमोशनल हैं, उनमें भाव-तत्व मुख्य है; प्रधान है। उनके प्रथम वयस के गीतों के अधिक लोकप्रिय होने का एक कारण शायद यह भी हो सकता है। यहाँ यदि मैं अपना एक विचार निवेदन करूं तो आशा है उसे एकदम अप्रासंगिक न माना जायगा। मुझे लगता है कि उपनिषदों का ब्राह्म धर्म कुछ इतने ऊँचे स्तर पर अवस्थित है कि साधारण मनुष्य वहाँ तक पहुँचने अथवा वहाँ श्वास-प्रश्वास ग्रहण करने में कठिनाई अनुभव करता है; जीवन के दुख-शोक के प्रसंगों में सहज शान्ति, विराम अथवा सान्त्वना नहीं पाता। इसी नेतिवाचक शून्यता में रवीन्द्रनाथ के धर्म-संगीत ने मानवीय प्रेम की उष्णता और मधुरता ला दी है। मानवीय स्नेह-प्रेम-प्रीति-भक्ति से उसने भगवान् को मानव का सुगोचर संगी बना दिया है। रवीन्द्र-संगीत में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं।
शुरू की उम्र के गीतों में कविगुरु ने स्वभावत: शास्त्र-सम्मत राग-ताल का ही अधिक प्रयोग किया है। विशेष रूप से ध्रुपद के सरल-गम्भीर आडम्बर-हीन चार अंगों की गति के प्रति रवीन्द्रनाथ खास तौर पर अनुरक्त थे और उसी ढाँचे का प्रयोग करना उन्हें प्रिय था। कुछ आगे चल कर मध्य वयस में अपने पितृदेव के आदेश से वे पद्मा नदी के तीर शिलाइदह में जमींदारी की देख-भाल करने गए। वहाँ वे एक हाउसबोट में रहते थे। इन दिनों उन्हें बंगाल के बाउलकीर्तन आदि प्रचलित लोक-संगीत का घनिष्ठ परिचय पाने का सुयोग मिला। बाद में अपनी गीत-रचना में उन्होंने कई प्रकार से इस लोक-संगीत के कला-कौशल का उपयोग किया । उनका प्रसिद्ध स्वदेशी गीत ‘आमार सोनार बाँगला’-अथवा मेरा सोने का बंगदेश-इसीका एक उदाहरण है। अपने जीवन के उत्तर-काल में वे स्थायी रूप से शान्तिनिकेतन में ही रहे और वहाँ उन्होंने विद्यालय के उत्सव-आयोजन के लिए बहुत से ऋतु-सम्बन्धी गीतों की रचना की। कई प्रकार के नये मिश्र-स्वरों का भी उन्होंने प्रवर्तन किया, जैसे, बाउल साधुओं के स्वरों के साथ शास्त्रीय रागों का मिश्रण अथवा ऐसे रागों का मेल; जो पहले कभी मिश्रण के लिए उपयोग में नहीं लाए गए। कुछ नये प्रकार के ताल भी उन्होंने निकाले, जैसे, षष्ठी या २।।४ मात्रा का ताल; नवमी या ५।।४ मात्रा का ताल (नौ मात्रा के ताल का और भी कई प्रकार से विभाजन किया है) ; झम्पक या उल्टा झपताल, जैसे ३।२।३।२; रूपकड़ा या ३।२।३ मात्रा का ताल; एकादशी अथवा ११ मात्रा का ताल, जैसे ३॥२॥२॥४, इत्यादि । शास्त्रीय संगीत के स्वर और छन्द को ज्यों-का-त्यों रखते हुए बेंगला शब्द-प्रयोग से रचे हुए गीतों को छोड़कर रवीन्द्र-संगीत में खयाल गायकी का प्रयोग बहुत कम ही मिलता है। इसका कारण यह है कि खयाल में तानों का प्रयोग अधिक होता है और अपने संगीत में तानों का बहुल प्रयोग उनकी रुचि के विशेष अनुकूल न था। उनके ध्रुपदांग अथवा उच्चांग संगीत को छोड़ दें तो हल्के-फुल्के ताल में रचे हुए गीतों को आम तौर पर ठुमरी की श्रेणी में डाला जा सकता है। रवीन्द्र-संगीत में टप्पे का प्रयोग कम ही देखने में आता है; वैसे हिन्दुस्तानी टप्प की गायकी के आधार पर उन्होंने धर्म-संगीत के अन्तर्गत कुछ सुन्दर गीत रचे हैं। उनके अपने कण्ठ से शास्त्रीय हिन्दी-संगीत के सभी अलंकार कितने सहज और स्वाभाविक रूप से प्रकाशित हुआ करते थे, सो उनके इने-गिने रेकडों को सुनकर आज के श्रोता भी समझ जायगी । मुझे लगता है, रवीन्द्रनाथ के रचे हुए संगीत में गायक द्वारा अपनी ओर से तानों का प्रयोग करने के विषय में आपत्ति का प्रधान कारण यह है कि उनके गीतों में शब्द अथवा उक्ति का महत्व सुर के महत्व से किसी तरह कम नहीं। स्वतन्त्र तानें न होने पर भी उनके कुछ गीतों में सुर के साथ ही छोटी-छोटी तानें जुड़ी हुई हैं और विभिन्न गीतों में मीड़, आस, गिटकड़ी या खोंच आदि अलंकार अथवा कला-कौशल भी पर्याप्त हैं। अभ्यस्त अलंकारों के यत्किचित् अभाव के कारण कुछ लोग रवीन्द्र-संगीत को एकधृष्ट या नीरस कहने लगते हैं, किन्तु तान के बिना भी रवीन्द्रनाथ ने दूसरे कितने ही उपायों से सुर में वैचित्र्य लाने का इतना प्रयास किया है और सफलता भी पाई है कि तनिक गहराई से विवेचना करने पर चकित होना पड़ता है। इस प्रसंग में उनकी कुछ विशेषताओं का यहाँ उल्लेख किया जाता है: क-भारतवर्ष भर में जहाँ जिस कोटि का भी स्वर उन्होंने ! सुना या पाया, उसमें उपयुक्त शब्द-योजना की अथवा उसके आधार पर गीत रचे । ख-अनेक नये तालों और मिश्र-सुरों का प्रवर्तन किया, जिसकी चर्चा हम पहले ही कर आए हैं। ग-ताल का आड़ा या तिरछा प्रयोग अथवा एक ही गान में ताल का फेर बहुत बार देखने में आता है। यहाँ तक कि एक ही गान को बारी-बारी से अलग-अलग तालों में गाकर उन्होंने इस क्षेत्र में भी मौलिकता का परिचय दिया । घ-केवल भिन्न ताल ही नहीं, किसी-किसी गीत को एक-के- बाद-एक भिन्न स्वर में गाकर भी उन्होंने वैचित्र्य की सृष्टि की। ङ—पाश्चात्य सुर-सन्धि या हार्मनी की प्रथा को यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने शास्त्रीय ढंग से पूरी तरह ग्रहण नहीं किया, तथापि परीक्षण के रूप में उसका भी कुछ आभास उनके दो-एक गानों में मिलता है। अन्यान्य क्षेत्रों के समान संगीत के क्षेत्र में भी उनके प्रदीप्त सक्रिय मन ने प्रयोग-परीक्षा करने में संकोच का अनुभव नहीं किया। अवश्य ही इस प्रयोग-परीक्षण का मूल सदा देश की मिट्टी में ही समाया हुआ था।
च-जब स्वदेशवासियों के पुराने संस्कार विपरीत थे, तब भी उन्होंने समाज में नृत्य का प्रचार किया। इस नृत्य-आन्दोलन के प्रसंग में उन्होंने जिन नृत्य-नाटचों की रचना की थी, उनके गीतों में भी कई प्रकार की अपनी विशेषताएँ मिलती हैं।
छ—कविगुरु का संगीत-जीवन जिस तरह गीति-नाटय से शुरू होता है, उसी प्रकार कहा जा सकता है कि नृत्य-नाटध से उसकी परिसमाप्ति होती है। उनके लम्बे जीवन के इन दोनों छोरों के बीच जो योग-सूत्र था, उसे हम नाटध-रस कह सकते हैं। इसी नाटच-रस को उन्होंने नये-नये रूपों में संगीत में प्रकट किया था। उन्होंने स्वयं ही अपने किसी गीति-नाटच को यदि गीत के सूत्र में गुंथी हुई नाटक की माला कहा है, तो किसी दूसरे को कहा है नाटक के सूत्र में गीतों की माला। वास्तव में मूल बात यह है कि दोनों में नाटचरस वर्तमान है और यही रस रवीन्द्र-संगीत में वैचित्र्य लाने का एक उत्तम साधन रहा है।
इसी जगह उनके संगीत की एक मुख्य विशेषता पकड़ में आती है; वह है सुर के साथ शब्द या उक्ति का अपूर्व शुभ-योग। शब्द स्वर में कहे गए हैं अथवा स्वर स्वयं ही बोल रहा है, कहना कठिन है: जान पड़ता है जैसे शब्द ही स्वर बन गए हैं अथवा स्वर ने आप ही शब्दों का बाना पहन लिया है। इसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति अवश्य ही गीति-नाटच में हुई है और स्वर में उत्तर-प्रत्युतर उसका प्रधान वाहन है। अभी हमने रवीन्द्र-संगीत की जिन विशेषताओं का क्रम से उल्लेख किया है, उनमें उनके गीतों की प्रचुरता को भी जोड़ा जा सकता है। हमारा आशय केवल संख्या की ही अधिकता से नहीं है-वैसे यह संख्या भी अपने-आपमें कुछ कम नहीं-किन्तु मनुष्य के हर प्रकार के व्यष्टिगत मनोभाव और समष्टिगत समारोह की दृष्टि से इतने तरह के इतने अधिक गीत अन्य किसी देश के किसी गीतकार ने लिखे होंगे, इसमें सन्देह है।
संगीत-क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ के अनेक कृतित्वों के विषय में मेंरा यह विनम्र विचार है कि उनका एक प्रधान कृतित्व यह कहा जायगा कि उन्होंने हमारे देश के शास्त्रीय संगीत की जटिल, दीर्ध, कष्टकर साधना को किसी हद तक सहज और सरस बनाकर उसे देशवासियों के हाथों सौंप दिया है। शास्त्र-सम्मत राग और ताल सभी को यथास्थान रख छोड़ा है, फिर भी थोड़े-से लोगों की जीवन-भर की कठोर साधना के स्थान पर थोड़े-से वर्षों के मनोयोग से ही संगीत के सौन्दर्य और माधुर्य का आस्वाद पाने का पथ सर्वसाधारण को दिखा दिया है। संगीत रवीन्द्रनाथ की विराट् प्रतिभा का एक अंश-मात्र है किन्तु वह उनकी बड़ी साध का-बहुत अन्तरंग-अंश है। उन्होंके शब्दों में : ‘मैं निश्चित जानता हूँ कि भविष्य के दरबार में मेरे कविताकहानी-नाटक के साथ चाहे जो बीते, मेरे गीतों को बंगाली समाज को ग्रहण करना ही होगा, मेरे गीत सबको गाने ही होंगे-बंगाल के घर-घर में, तरुहीन सुदूर पथ पर, मैदानों में, नदी के तीर-तीर। मैंने देखा है. मेरे गीत जैसे मेरे अचेतन मन से बरबस निकले हैं। इसीलिए उनमें एक सम्पूर्णता है।”
रवीन्द्रनाथ की इस प्रियतम वस्तु का समग्र भारत में प्रचार करने का भार लेकर साहित्य अकादेमी हमारी कृतज्ञता-भाजन बनी है। मेरा आन्तरिक आवेदन है कि इसी प्रकार रवीन्द्र-संगीत की स्वर-लिपि के प्रचार का प्रशंसनीय कार्य भी अकादेमी द्वारा ही सम्पन्न हो। मैं प्रार्थना करती हूँ कि इस सुमधुर गीति-मालिका के आकर्षण से भारत के सभी प्रदेश एकता के और भी घनिष्ठ सूत्र में आबद्ध हीं। – इन्दिरा देवी चौधुराणी
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