Ishwar Prem Pushpa Mala by Sant Sree Ishwar Prem Hindi ebook

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Ishwar Prem Pushpa Mala (ईश्वर प्रेम पुष्पमाला) by Sant Sree Ishwar Prem Hindi ebook

Ishwar Prem Pushpa Mala by Sant Sree ebook
e-book novel- Ishwar Prem Pushpa Mala (ईश्वर प्रेम पुष्पमाला)
Author- Sant Sree Ishwar Prem
File Format- PDF
Language- Hindi
Pages- 193
Size- 10mb
Quality- nice, without any watermark

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‘ईश्वर प्रेम पुष्पमाला’ का यह द्वितीय पुष्प है। प्रथम पुष्प की भाँति इसके भी प्रथम खण्ड मे जिज्ञासुओ की ज्ञान पिपासा शान्त करने के लिए महाराज जी, सन्त ईश्वर प्रेम, के चुने हुए प्रवचन और व्याख्यान है तथा द्वितीय खण्ड मे माता श्री कृष्णमयी के भक्ति-रस-सित भजनो का सग्रह। “परन्तु इस भाग मे प्रकाशित प्रवचनो मे जो प्रेरणा और आश्वासन है, व्याख्यानो मे जिज्ञासुओ के निजी प्रश्नो का व्यवहारिक स्तर पर जो समाधान है और भजनो में जो भावो की तीव्रता और मधुरता है उनके कारण यह भाग भी न केवल प्रथम भाग की भॉति लोकप्रिय होगा वरन् कई अर्थों में प्रथम भाग का सहयोगी और पूरक भाग हो गया है।
सन्त ईश्वर प्रेम जी महाराज के अनुपम व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर अक्सर लोग उनकी जीवनी के विषय मे जानने के लिए लालायित रहते हैं। -महापुरुषो का वास्तविक जीवन तो एक सूक्ष्म जगत् मे व्यतीत होता है और जिस अन्तर्जगत मे वे विचरण करते है उसका वाह्य घटनाओ द्वारा कोई आभास देना एक दुस्साध्य कार्य है। फिर भी महाराज जी के जीवन के विषय मे जो तथ्य जाने जा सके हैं उनकी थोडी वहुत चर्चा यहाँ की जा रही है। महाराज जी का जन्म प्रयाग के एक उच्च कोटि के धर्म निष्ठ ‘कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार मे हुआ । जन्म का नाम श्री जयशकर वाजपेयी `था । उच्च ब्राह्मण-कुलोचित प्राचार-विचार, यम-नियम, साधना न केवल उनके हिस्से मे पड़ी थी बल्कि उनका उन्होने कठोर पालन किया । बाल्य काल ही से जगत् और इस जगत् की पहेली के प्रति ऐसे जागरूक थे कि देह, मन, बुद्धि को स्वस्थ, स्वच्छ और कुशाग्र बनाने के लिए जो भी साधन स्उपलब्ध थे उनके समुचित सदुपयोग करने में कुछ भी उठा नही रक्खा । कालेज मे विद्याथों वे विज्ञान के थे । रसायन शास्त्र, प्राणि शास्त्र और – वनस्पति शास्त्र उनके विशेष विषय थे परन्तु प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी थी कि परीक्षा के लिए निर्धारित विषयो के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, साहित्य, सगीत के अध्ययन मे बहुत सा समय व्यतीत करते थे। विद्वानी और पुस्तको से जो कुछ मिल सकता उसके उपार्जन मे सतत प्रयत्नशील रहते थे। प्रकृति ने उनको जैसी प्रतिभा दी है वैसा ही उन्होने सुन्दर सुडौल शरीर भी पाया है जिसके कारण उनके व्यक्तित्व मे एक अद्भुत आकर्षण है। उनके विद्यार्थी जीवन मे सभी समझते थे कि आगे चल कर वे एक कुशल डाक्टर या मेधावी प्रोफेसर होगे किन्तु अदृश्य शक्तियाँ तो उन्हे किसी दूसरी ही ओर ले जाना चाहती थी। धार्मिक जिज्ञासा उनके भीतर उसी दिन से जाग गई जिस दिन उनका उपनयन सस्कार हुआ और इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए उन्होने अनेक साधन, प्रयोग किए और इन साधनों और क्रियाओ के बीच एक समय तो ऐसा आ गया जब उनके भीतर सन्यास ग्रहण कर लेने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई। महाराज जी के विवाह की भी एक विचित्र कहानी है । उन दिनो वे भुवाली के पर्बत शिखरो पर एक मकान के दोमजिले पर योगाभ्यास किया करते थे। विशेष रूप से सिद्धासन मे देर तक स्थित रहा करते थे। उसी मकान के नीचे की मंजिल मे एक उच्च कुल का ब्राह्मण परिवार ठहरा हुआ था। इस परिवार के मुखिया यौगिक सिद्धियो को प्राप्त करने मे सलग्न युवक के मनोहर शरीर और असाधारण निष्ठा पर मुग्ध हो गए। उन्होने निश्चय कर लिया कि वे अपनी भॉजी, वर्तमान् मातेश्वरी मा श्री कृष्णमयी का विवाह इस अनुपम युवक से करेगे और उन्होंने विवाह का प्रस्ताव सामने रक्खा । ग्रध्यात्म पथ पर ग्रारूढ नवयुवक और कन्या पक्ष के अभिभावको के लिए भी एक विकट समस्या थी। अतएव यद्यपि दैवी विधान से विवाह तो हुआ परन्तु आध्यात्मिक समस्या उलझी ही रही। महाराज जी के जीवन में यह गहरे सघर्ष और औान्तरिक हृदय मन्र्थन के दिन थे। क्या उस आध्यात्मिक गन्तव्य का जिसकी ओर महाराज जी तेजी से बढ रहे थे सामान्य गार्हस्थ्य जीवन से सामजस्य स्थापित किया जा सकता है? क्या जागतिक व्यापार ग्राध्यात्मिक जीवन की परिपूर्णता मे स्पष्ट रूप से बाधा नही उपस्थित करतें ? क्या जगत् के परिवर्तन स्रोत मे प्रवाहित होते हुए भी अपने की नित्य बोध, नित्य आनन्द की स्थिति मे अविचल रूप से रक्खा जा सकता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो विविध रूपो और अनेक सन्दभों मे अनादि काल से महात्मा गौतम बुद्ध से लेकर श्री रामकृष्ण परमहस तक अनेक महापुरुषो के सामने उपस्थित होता रहा है । महाराज जी ने इस स्पष्ट विरोध के समाधान की खोज मे बहुत तपस्या की, अनेक महापुरुषो का सत्संग किया, बहुत सोचा विचारा और समाधान मिला उन्हे अपने गुरुदेव, भगवान श्री भोला नाथ जी महाराज के सम्पर्क मे आकर। इन अवतारी महापुरुष ने न केवल समस्या का समाधान किया वल्कि यह भी बतलाया की इन वाह्य विरोधो का समुचित समाधान ही साधना का लक्ष्य है। महाराज जी और श्री माता जी के लिए उनका आदेश है कि वह इस सत्य को कि जागतिक सघर्षों के बीच ब्राह्मी स्थिति अविचलित रक्खी जा सकती है अपने जीवन मे चरितार्थ करें और प्रकाश मे लावे । वर्षो हो गए महाराज जी को और श्री माता जी को इस प्रकाश की मजु मरीचियो का वितरण करते हुए। वाह्य रूप आज भी उनका एक गृहस्थ का है और केवल वाह्य रूप से प्रभावित होने वालो का इस रूप से चकित होना भी आश्चर्य का विषय नही है। स्पष्ट है कि जागतिक व्यापारों के साथ एक अतीन्द्रिय आत्मसुख का यह समन्वय कोई हँसी खेल नही हैतरवार के धार प धावनी है। चमत्कार तो यह है कि अपने ईश्वर प्रेमाश्रम मे इस दुस्साध्य साधना को उन्होने न केवल सुगम और सहज बना लिया है वरन् अपनी दिव्य शक्ति और कृपा द्वारा दूसरों के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर दिया है।
महाराज जी की विचारधारा की किसी मत, पद्धति, प्रणाली के रूप मे प्रस्तुत नही किया जा सकता। उनका ईश्वर प्रेम प्रत्यक्ष अनुभव और रसानुभूति द्वारा साक्षात्कार पर आधारित है। प्रेम, सेवा और विश्वास द्वारा सजगता और साक्षात्कार सम्भव भी है और साध्य भी। कोई विशेष वौद्धिकता या विद्वता इतनी अपेक्ष नही है जितनी सहजता और समर्पण । फिर भी उनके मन्तव्यो का कुछ आभास उन बातो से मिल सकता हे जिनकी चर्चा वे अपने प्रवचनो में अक्सर किया करते है। ‘ईश्वर है, वह सर्वशक्तिमान, व्यापक और नित्य साथ है, वह प्रेममय, परम सुन्दर और कृपालु है। अहकार ही शत्र है इसको प्रभु चरणो मे बाँध कर ही निर्भयता प्राप्त की जा सकती है। ससार रूपी नाटक की रचना मे हमे जो स्थान दिया गया है वह पूर्ण है इसलिए कि वह रचना की व्यवस्था के अनुरूप है इसलिए अपने कर्तव्य पालन ही से भगवान को प्रसन्न करना है। विश्व एक कुटुम्ब है अतएव अपने स्वजन सबधियो के समान ही सब से प्रेम एव उनकी सेवा करनी है। प्रत्येक हृदय मे प्रभु विराजमान हैं इसलिए किसी का भी हृदय न दुखाना ही हमारी साधना है। भिन्न-भिन्न धर्म भगवान तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग है अतएव किसी के भी धार्मिक विश्वास पर आघात नही करना है। सासारिक और आध्यात्मिक जीवन मे कोई विरोध नही है अतएव दोनो में समन्वय स्थापित करना है। अन्तःकरण को साधु बनाना है और शरीर से यावत् कर्म करता है।’ महाराज जी के ईश्वर प्रेमाश्रम मे इन्हीं तत्वो का प्रकाश मिलता है। स्पष्ट है कि ऐसे उदार, व्यापक, आधारभूत तत्वो का पीछा किन्ही पूर्वाग्रहो, पद्धतियो, प्रणालियो को लेकर नही किया जा सकता । रिक्त होकर ही साधक उनको अपने असली रूप मे ग्रहण कर सकता है। स्वभावत: महाराज जी किसी यम, नियम, उपासना, प्रक्रिया के बन्धनों मे साधक को आबद्ध नही करते। परन्तु जिज्ञासु तो उनके पास पूर्वसस्कार और रूढिगत | धारणाओ के भार से लदा हुआ ही आता है। महाराज जी की अपार अनुकम्पा की यह बडी विशेषता है कि वे जिसको जिस जगह देखते हैं उसका वही से उद्धार करते है। ‘ईश्वर प्रेम पुष्पमाला’ के इस द्वितीय भाग में उनकी यह प्रवृत्ति विशेष रूप से चरितार्थ हुई है। गुरु, गुरु मत्र, ईश्वर ग्रवतार, उपासना, प्रतिमा पूजन, इष्ट निष्ठा, प्राहार, व्रता, सयम ग्रादि के विषय में अनेक प्रचलित धारणाए है और इन्ही धारणाओं के वश में लोग महाराज जी के पास आते है। महाराज जी खण्डन मण्डन नही करते, न शुष्क तर्क द्वारा ही अपनी बात मनवाने की कोशिश करते है। उनकी पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि जिज्ञासु दुखी है, सन्तत है, कोई ओर छोर न पाने के कारण कोई आधार, अवलम्ब चाहता है। तर्क और मिद्धान्त निरूपण द्वारा उसे चमत्कृत तो किया जा सकता है परन्तु उसके द्वन्द्व, उसके अभाव, उसके जीवन की नीरसता दूर नही की जा सकती। अतएव उनका अपना ढग है साधक को बौद्धिक विश्लेषण की भूलभुलैया मे न ड़ाल कर सीधे तथ्य की तह तक पहुँचा देना। किसी ने पूछा गुरु कौन है ? उसको कसे पहचाने ? उनका उत्तर होता है ‘आत्मा की आत्मा ही जगा सकती है। जब आत्मा मे धर्म पिपासा प्रबल होती है, भगवान को जानने की सच्ची जिज्ञासा, तीव्र लालसा जाग्रल होती है तो ग्रहीता मे एक आकर्षण पदा हो जाता है उसी आकर्षण से आकृष्ट होकर वह प्रकाशदायिनी शक्ति से परिपूर्ण परमात्मा स्वय आकर खड़ा हो जाता है। यही गुरु है। कोई जानना चाहता है कि मत्र क्या है ? वैसे तो महाराज जी परम्परागत ढग से कोई मत्र नही देते। मत्र देने का अर्थ तो महाराज जी यही मानते है कि गुरु अपना ज्ञान-भक्ति-वैराग्य से परिपूर्ण मन शिष्य को दे दे और उसके अन्दर प्रविष्ट हुआ यह मन क्रियाशील होकर उसको परिवर्तित करता रहे, उसकी रक्षा करता रहे, वास्तविकता का प्रबोध कराता रहे, फिर भी अगर किसी शब्द या नाम का जप कोई कर रहा है तो इस जप की ठीक प्रक्रिया, उसका उद्देश्य और प्रभाव भी बताने से नही हिचकते क्योकि उनका लक्ष्य तो साधना मे सुविधा प्रदान करना और साधना को सजीव बना कर सोई हुई आध्यात्मिक शक्ति को जगाना है। पूजा, ध्यान धारणा के विषय में तो बहुत से जिज्ञासु महाराज जी से रौज पूछते हैं। पुष्पमाला के इस द्वितीय भाग मे महाराज जी ने पूजाविधि, ग्रासन, घ्यान, धारणा, वातावरण, प्रक्रिया ग्रादि विषयो का विस्तृत और विशद वर्णन किया है। परन्तु जिज्ञासु की स्थिति, उसकी कठिनाइयों और विवशताओ को ध्यान मे रख कर जिस शैली का अनुसरण किया है वह पूर्णतया रचनात्मक है। साधक जहाँ भी हो, जो कुछ भी कर रहा हो उसकी स्थिति, उसके प्रयास की सीमाओ को आलोकित करते हुए, एक गहराई से दूसरी गहराई तक ले जाते हुए, आध्यात्मिक अनुभूति की तहो तक पहुँचा देते है। फलत: साधक मे एक नवीन जागरूकता आने लगती है, तथ्यो की एक नई पकड मिलती है, वास्तविकता से एक नया सम्पर्क स्थापित होता है। अन्ततोगत्वा गन्तव्य स्थान और अन्तिम उपलब्धि के विषय मे वह भली-भाँति सतर्क हो जाता है-‘साकार मे निराकार छिपा हुआ है इसी को पकड़ना है। भावना में भावनातीत छिपा हुआ है उसी में डूबना है। गुण मे गुणातीत छिपा है। गुणातीत मे खो जाना है।’ महाराज जी की साधना सर्वागीण है। साधक के जीवन का कोई अग इतना तुच्छ या हेय नही है जिसके परिष्कार की ओर उनकी दृष्टि न हो। अतएव इस पुस्तक में उन्होने गहन आध्यात्मिक विषयो के साथ-साथ ऐसे विषयो पर भी जैसे आहार, व्रत, उपवास, व्यायाम, स्नान, सयम पर उपयोगी, व्यवहारिक, अनुभूत और गुणकारी जानकारी प्रदान की है क्योकि उनकी साधना का उद्देश्य तो है साधक के सम्पूर्ण जीवन का आमूल चूल रूपान्तरण । ‘राम कहा हैं ?’ ‘प्रेम दर्शन,” “जीवन दर्शन,” और ‘आश्वासन’ शीर्षक प्रवचन जो पुस्तक के आदि में रक्खे गए है महाराज जी की अपनी शैली मे हैं। प्रेरणा की शक्ति और उत्साह की स्फूर्ति से सजीव ए अनमोल प्रवचन ग्रहणशील पाठक के मन को छुए बिना नही रह सकते। जिन भाग्यवान स्त्री पुरुषो को उनके प्रवचनो को सुनने का अवसर प्राप्त हो चुका है वे जानते हैं कि महाराज जी की वाणी मे कैसी मर्मभेदी और साथ ही साथ सृजनकारी शक्ति है। इस सृजनकारी शक्तिके कारण गुरुब्रह्मा वाली उति तो उनके विषय मे अत्यन्त सार्थक है।
माता जी के सकीर्तन मे गाए जाने वाले गीतों की एक बड़ी सख्या “पुष्पमाला के इस द्वितीय भाग के द्वितीय खण्ड में भी सग्रहीत हैं। इन गीतो की लोकप्रियता तो श्रोताओ की दिनो-दिन बढती हुई भीड ही से प्रकट है। परन्तु माता जी के लिए जो सब से अधिक सन्तोष का विषय है वह यह कि अपने शरीर और स्वास्थ्य की कुछ भी परवाह न कर के वे जो देश के कोने-कोने मे मकीनन सम्मेलनो का आयोजन कर रही हैं उसके वास्तविक उद्देश्य धीरे-धीरे परन्तु निश्चित रूप से सफलीभूत होते दिखाई दे रहे है। उनकी सकीर्तन प्रणाली का मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि कीर्तन आध्यात्मिक साधना और आत्मानुभूति मे सहायक हो। आज उनकी मण्डली ही मे नही बल्कि उनकी मण्डली के बाहर भी अनेक रामप्रसमग्न और आत्मविभोर महिलाए है जिनके लिए भजन कीर्तन भगवत्प्राप्ति का एक साधन है। लय योग के जो बीज माता जी ने उनके हृदयो मे डाले है वे निश्चित रूप से अकुरित और पल्लवित हो रहे है और वह समय दूर नही जब उनकी सकीर्तन वाटिका काव्य, सगीत, अन्त सुख और समर्पण के पुष्पों से लहलहाती हुई दिखाई देगी।
ज्ञान, भक्ति और कर्म का अपूर्व समन्वय है उस साधना में जिसमें श्री महाराज जी अपने प्रभाव मे पाने वाले साधको को नियुत करते है। परन्तु जिस ज्ञान की वे चर्चा करते हैं वह पुस्तको और शास्त्रो का ज्ञान नही । उसका प्रधान उदृश्य अपने भीतर छिपे हुए प्रकाश के आलोक मे आना है, अपने अन्तस्तल में विराजमान र्दवी शक्ति के प्रति जागरूक और उन्मुख होना है। कर्म के नाम पर वह कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड के बजाय केवल उत्साह लगन, धैर्य और सेवाभाव की आशा करते हैं। भक्ति उनकी सच्चे अर्थों मे प्रेम स्वरूपा, अमृतस्वरूपा है जिसको पा कर साधक कृतकृत्य हो जाता है। अतएव उनकी साधना, उनका मार्ग कोई साधना या मार्ग न होकर जीवन और आत्मानुभूति की साधना है। फलत: ईश्वर प्रेमाश्रम मे प्रेम, समर्पण और सगीत की एक ऐसी अवाधित त्रिवेणी प्रवाहित रहती है जो सबहि सुलभ, सब दिन, सब देसा, सेवत सादर समन कलेसा। विनीत- देवेन्द्र सिह, एम० ए०, एल-एल० वी० प्रोफेसर सी० एम० पी० डिग्री कालेज, इलाहाबाद

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