Natak Bahuroopi (नाटक बहुरूपी) by Lakshminarayan Lal, हिंदी नाटक pdf

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Natak Bahuroopi (नाटक बहुरूपी) by Lakshminarayan Lal, हिंदी नाटक pdf
Author- Dr. Lakshminarayan Lal (डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल),
Book Type- नाटक संग्रह
File Format- PDF,
Language- Hindi,
Pages- 284,
Size- 2Mb,
Quality- good, without any watermark, clickable table of contents

Natak Bahuroopi (नाटक बहुरूपी)  by Lakshminarayan Lal pdf

नाटक
और एकांकी नाटक

बड़े नाटकको प्रस्तुत करनेमें, खेलने और निर्देशनमें जितना प्रस्तुतकर्ता हुआ है, ठीक उतना ही अगम्भीर एकांकी रचनामें नाटककार हुपा है । इसके मूलमें बाहरी कारण तो अनेक है, किन्तु मूल आन्तरिक कारण है उसकी उद्देश्यहीनता। और इसका भी मर्म है एकांकीकारकी विचारहीनता।
यह विचार, यह उद्देश्य क्या है इस रचना-प्रक्रियामें ? इसका मतलब कोई ‘थीसिस’ नहीं है। यह बहुत ही स्पष्ट बात है । ‘थीसिस’ पर लेख और निबन्ध लिखा जाता है, साहित्यको अन्य विधाएँ तैयार की जा सकती हैं; किन्तु नाटक-एकांकी नहीं। यद्यपि एकांकीके पिछले पूरे साहित्यमें अधिकांश एकांकी इसी थोसिससे ही लिखे गये हैं, फलतः वे बाहरसे, केवल रूप मात्रमें, एकांकी हैं, पर अपनी वास्तविकतामें वे सब कहानी हैं, लेख हैं, निबन्ध हैं, पत्रकारिता हैं, भाषण हैं, परिसंवाद हैं।
क्योंकि इसकी रचना तो थीसिसके संघर्ष और कटु विरोधसे शुरू होती है – ऐण्टीथीसिससे । और यह ऐण्टीथीसिस विचारोंके स्तरसे नहीं शरू होता; यह आता है जीवनकी कटु, गहन और निर्मम अनुभूतिसे। यह तत्त्व कुछ नयी कवितामें है, उससे ज्यादा नयी कहानी में है। पर एकांकीमें यह क्यों नहीं पा रहा है, यही इसके पिछड़ेपनका बहुत बड़ा सबूत है। लगता है एकांकी और साक्षात् जीवनके बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गयी है।
वस्तुत यह दीवार आयो है पीछेसे – एक अजब अँधेरे मार्गके जरिये ।
बुखारीके कालका रेडियो संसार ।
उस समयके रेडियो नाटककार थे उके कई ख्यातनामा लेखक । उनकी रचना-भूमि थी कल्पना, रोमान्स, कुण्ठा और एक बीमार चेतना; जिसको विरासत थी पारसी थियेटरको भावभूमि और उर्दूकी वह चेतना जहाँ हर आदमी रोगी है, जख्मी है और बेहद उदास है, नंगा है । उसके सामने ‘चिलमन’ है । वह ‘भँवर’ में डूब चुका है।
उस उर्दू एकांकीकारों ( रेडियाई ) के पूरे जत्थेमें-से सिर्फ एक लेखक अपनी विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टिके साथ अपने उस पूरे बासी, रुग्ण और ‘डिकेडेण्ट’ कूड़ा-करकटको लिये हुए हिन्दीमें आया। हिन्दी एकांकीके उदयका वह प्रथम चरण था। सिर्फ दो-तीन समर्थ एकांकीकार उस समय उस क्षेत्रमें थे। बाजार अच्छा था। फलत: उसने अपने उन सारे रेडियो रूपोंका हिन्दी में अनुवाद कराया। और उसपर मंच एकांकीका चमकता हुमा कवर चढ़ाकर चुपकेसे वह हिन्दी एकांकी जगत्में पा गया ।
वह अदृश्य दीवार वहींसे हिन्दी नाट्य-जगत्में इस तरह पायी । वह दीवार हिन्दी कहानी-क्षेत्रमें भी तब पाना चाह रही थी; किन्तु कहानीक्षेत्रमें अज्ञेय, जैनेन्द्र , यशपाल-जैसे लोग मौजूद थे जो इस दीवारको खूब पहचानते थे और इससे वे खूब सतर्क भी थे। इसलिए वह दीवार किसी भी तरह वहाँ नहीं खड़ी हो सको। वह दीवार केवल यहाँ आकर खड़ी हुई – अपेक्षाकृत तब इस सूने क्षेत्रमें ।
तबसे यह अन्धी दीवार हिन्दी एकांकी और नाटकके नामपर जितनी असहित्यिक, भारतीय, उद्देश्यहीन, कलाहीन छायाएँ यहाँ डाल रही है, उसका लेखा-जोखा भयानक है।
पर हिन्दीमें फिर भी वह अन्धी दीवार अबतक खड़ी है। जिसकी शापित छायामें नाटक यहाँ अपने सिरके बल खड़ा हो गया है। केवल कथोपकथन, केबल ‘मूड’, और रंगविहीन ।
जब कि नाटककी रचना-भूमि बिलकुल दूसरे सिरेपर है। इसकी हर रचनामें एक मानवीय उद्देश्य है। यह मनुष्यके उस वास्तविक संघर्षसे अपना जन्म पाता है जहाँ मनुष्य कुछ प्राकांक्षा कर रहा है पर पग-पगपर जहाँ वह पराजित हो रहा है। उस अभुक्त, अप्राप्त आकांक्षाके दर्पण दिखाने का काम नाटकका है – एकांकीका है। तभी नाटक, साहित्यके समस्त म्हपोंमें श्रेष्ठ है, अग्रणी है। यह सत्यको बताता नहीं, प्रत्यक्ष दिखाता है। यह मानवीय संघर्षकी कथा नहीं कहता यह उस संघर्षके साथ स्वयं जूझता है और मंचपर उसीको प्रत्यक्ष छेड़ देता है । यह मानव आकांक्षा, शक्ति, विकास और अदृश्य सूत्रका प्रचार और प्रसार करता है।
इसकी सोद्देश्यता, इसका संकल्प ही इसकी निजी सत्ता है, एकान्त व्यक्तित्व है । ‘टु इन्सट्रक्ट शू डिलाइट’ – यही इसकी रचना प्रक्रियाका मूल है। जो नाट्य-रचना इस शर्तको नहीं पूरी करती उसे नाटककी संज्ञा नहीं दी जाती – न पूरबमें न पश्चिममें, न अतीतमें न वर्तमानमें, न किसी साहित्यमें।
वास्तविक नाटकमें घटना होती है, कार्य होते हैं – क्योंकि उसके अन्तरतममें कोई मानवीय संघर्ष छिड़ा रहता है ! और उस सबके मध्य में एक निश्चित विचारका प्राण संचरित रहता है । इन सभी महत् तत्त्वोंसे जो नाट्य-कृति शून्य रहती है, वह रचना नहीं, महज दीवार है । दीवार ।
यह विचार आता कहाँसे है ? समाज चेतनासे, प्रत्यक्ष जीवनसे – क्योंकि यह अबाध है, सनातन है। इसकी गतिशीलताका एक वैज्ञानिक नियम है।
एकांकी जीवनकी एक मूलभूत घटना, एक कार्यको जब अपना आधार बनाता है तो इसका अर्थ उस घटना, उस कार्यके एकान्त भावमें सबसे निरपेक्ष होकर नहीं लिया जा सकता। उसे उसकी समूची व्याप्ति और सम्पृक्ततामें देखना होगा। तभी एकांकी में एक घटना, उस पूरे समवेत कार्यकी झांकी मिलती है। और वह कृति बड़े नाटकसे भी . श्रेष्ठ सिद्ध होती है। क्योंकि वह अपने प्रभाव और अर्थमें बड़ी कृति बन जाती है।
यह अर्थ तत्त्व ही एकांकीको श्रेष्ठ साहित्यके साथ-ही-साथ उसे इतिहास और विज्ञानकी भी सबल भूमिका प्रदान करता है। इस अर्थ-निष्पत्तिके ही कारण एकांकीमें वह रंगमंच तत्त्व उदित होता है जो उसे महान कृतिको संज्ञा प्रदान करता है। अर्थहीनता, ‘मूड’ और ‘थीसिस’ के बीच और लेखन भले ही सम्भव है, ‘रचना’ तो असम्भव ही है। और जहाँ रचना नहीं है वहाँ रंगमंच तो हो ही नहीं सकता। निश्चित अर्थ, विचार, उद्देश्य और वास्तविक जीवन इन्हीं तत्त्वोंसे नाट्य-रचनामें रंगमंचका एक निश्चित रूप भी निर्धारित होता है। बल्कि रंगमंचके वास्तविक तत्त्वोंके बीच हर एकांको अपना मौलिक जन्म ही पायेगा। और वह स्वभावतः अपने रंगरूपमें बहुरूपी होगा।
नाटकका बहुरूपी तत्त्व यही है जिसके कारण जीवन और मनुष्य तथा उसके संघर्षोंको नाटककारकी रंगरूपकी सीमाके कारण सीमित नहीं होना पड़ता। वह तोड़-मरोड़कर इस विधामें नहीं खींचा जाता। तब जीवन और मनुष्यको सारी शालीनता, उसकी सम्पूर्ण छवि यहाँ खरिडत नहीं होने पाती।
वास्तविक एकांकीके महत्त्वकी तुलना वर्षाके महत्त्वसे की जा सकती है, जो धरती और इनसानको नया जीवन प्रदान करती है, किन्तु जो अन्तत: धरतीसे आकाशमें उठी भापके बादलोंसे ही बरसती है। – लक्ष्मीनारायण लाल

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विषयसूची :
गुड़िया
वरुण-वृक्षका देवता
बादल आ गये
मीनारकी बाँहें
हम जागते रहें
रावण
हँसीकी बात
ठण्डी छाया
मोहिनी-कथा
गदर
वसन्त ऋतुका नाटक

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