Apne Somoy Ka Aayina (अपने समय का आईना) by Subhash Satia – Hindi Book pdf

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Apne Somoy Ka Aayina (अपने समय का आईना) by Subhash Satia – Hindi Book pdf
Writer- Subhash Satia (सुभाष सेतिया)
Book Type- हिंदी पुस्तक
File Format- PDF
Language- Hindi
Pages- 194
Size- 28Mb
Quality- best, without any watermark

Apne Somoy Ka Aayina (अपने समय का आईना) by Subhash Satia

यह पुस्तक-
ज्ञान और अनुभव बांटने से बढ़ता है। शायद यही सच्चाई हर संवेदनशील और चिंतनशील व्यक्ति को अपने को अभिव्यक्त करने को प्रेरित करती है। कवि, लेखक या कलाकार जो कुछ अपने आसपास देखता, सुनता, पढ़ता व महसूस करता है, उसे ही अपनी कल्पना, चिंतन और शैली के रंग-रूप से सजाकर प्रस्तुत करता है। कवि, लेखक या कलाकार की यही प्रस्तुति साहित्य, कला, संगीत तथा अन्य कलारूपों में अस्तित्व में आती है।
लेखक या कलाकार अतीत के सागर में गोते लगाए अथवा सुदूर भविष्य की कपोल कल्पनाओं के सहारे विविध चित्र खींचे, उसकी प्रेरणा और अनुभव को सींचता वर्तमान ही है। कालजयी रचनाएं इस तथ्य की साक्षी हैं कि उनके रचनाकारों का मुख्य उपजीव्य उनका अपना काल, समय और वातावरण रहा है। कोई भी व्यक्ति अपने वर्तमान से उदासीन रहकर सृजन कर ही नहीं सकता। वह वर्तमान के प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए ही अतीत और भविष्य की ओर देखता है। अपने समय को पहचानने की इस कोशिश का ही प्रतिफल यह पुस्तक है।
आज के जटिल संसार में कोई भी चिंतनशील सृजनकर्मी किसी एक क्षेत्र, रुचि अथवा चिंता तक सीमित रहकर संतोष नहीं कर सकता। उसे राजनीति, धर्म, अपराध, हिंसा, सेक्स, युद्ध और प्राकृतिक विपदा जैसे सभी मुद्दे विचलित करते हैं और वह सब पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। यही प्रतिक्रिया जब अध्ययन, विश्लेषण, शोध
और समाधान की सोच के साथ लेखनीबद्ध होती है तो वह रचना का रूप ले लेती है। समय-समय पर भारतीय मानस को आलोड़ित करने वाली समस्याओं के बारे में अध्ययन, अनुभव तथा चिंतन पर आधारित प्रतिक्रिया ही इस संकलन के लेखों की पूर्वपीठिका है।
एक बात और। व्यवस्थित प्रतिक्रिया बहुधा किसी दृष्टिकोण, पूर्वधारणा या दुराग्रह पर आधारित होती है। हर बौद्धिक प्रतिक्रिया के लिए कोई न कोई निकष या कसौटी होना जरूरी है। निस्संदेह हम किसी प्रचलित विचारधारा, वाद अथवा मत से प्रभावित या उसके पक्षधर हो सकते हैं। यह भी संभव है कि समय के साथ हमारी विचारधारा बदल जाए। फिर भी किसी एक समय पर किसी वाद या विचारधारा के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक है। कोई भी लेखक या कलाकार इस संभावना से बच नहीं सकता। बचने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। लेखक की रचना में उसकी विचारधारा या दृष्टिकोण नहीं झलकता तो वह अपनी दृष्टि के प्रति ईमानदार नहीं है।
परंतु यह दृष्टिकोण किसी समस्या के निष्कर्ष को भले ही प्रभावित करे, उसका विश्लेषण इससे अछूता रहना चाहिए। यदि आप समाजवाद के पक्षधर हैं और अपनी रचना में समाजवाद की व्याख्या करते हुए उसके केवल सकारात्मक पहलुओं की चर्चा करते हैं और नकारात्मक पक्षों की ओर संकेत नहीं करते तो आप अपने रचनाधर्म से च्युत हो रहे हैं। अच्छे-बुरे पक्षों की तुलना, विवेचन और विश्लेषण की छलनी में छानकर निष्कर्ष में अपनी दृष्टि का छौंक लगा सकते हैं तो आप अच्छे कलाकार और रचनाकार हो सकते हैं।
इस संकलन में आप लेखक को अपनी बात थोपते हुए नहीं पाएंगे। जाहिर है, अपनी कोई बात कहने के लिए ही हर लेख लिखा गया है, परंतु लेखक जो कुछ कहना चाहता है वह तथ्यों और उसके विश्लेषण के बीच से ही उभरता है। तभी वह विश्वसनीय, प्रामाणिक और स्वीकार्य भी हो सकता है। उदाहरण के लिए ‘संस्कृति विमर्श’ के ‘धर्म और सरोकार’ लेख में धर्म के अच्छे-बुरे दोनों पक्षों का विवेचन करते हुए धर्म के रचनात्मक सरोकारों को स्वीकार किया गया है, तो ‘चमत्कारों की अंधी गलियां’ लेख में दोनों पक्षों के बीच से धर्म के नकारात्मक पहलू उभरते दिखाई देते हैं। ये दोनों लेख, अलग-अलग समय पर अलग-अलग परिस्थितियों में लिखे हुए हैं और उनके निष्कर्ष अलग-अलग हैं, परंतु यदि आप लेखक की दृष्टि ढूंढ़ना चाहेंगे तो दोनों में एक ही दृष्टि झलकती दिखाई देगी। यही बात इस पुस्तक के अन्य विमर्शों में संकलित लेखों पर लागू होती है। हां, मेरा यह दावा कितना संतुलित और असंतुलित है, इसका निर्णय पाठक ही करेंगे।
इस पुस्तक में संस्कृति, समाज और जनसंचार माध्यमों से जुड़े विविध पहलुओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इनका रचनाकाल अलग-अलग रहा है। यद्यपि तथ्यों व आंकड़ों को अधुनातन बनाने का प्रयास किया गया है। लेखों में यदि चिंतन की ऊंचाई, विषय की व्यापकता और संवेदना की गहनता का अभाव दिखाई दे तो वह मेरे अनुभव, प्रतिभा और ज्ञान की सीमा है। अर्जित ज्ञान, चिंतन और दृष्टि की ईमानदार अभिव्यक्ति ही मेरी संपत्ति है। इनमें वही मुद्दे उठाए गए हैं जो बीसवीं सदी के अंतिम दशकों और इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भारतीय जनमानस के लिए प्रश्न पैदा करते रहे हैं। विषय चाहे धर्म हो या जीवन-मृत्यु का संघर्ष, शिक्षा हो अथवा सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक स्मारक और मानचिह्न, नारी की स्थिति हो या फिर हमारी निजी जिंदगी में जोरदार ढंग से झांकते संचार माध्यम. ये सभी मद्दे हमारे जीवन को कहीं गहरे जाकर प्रभावित करते हैं और हमारी संवेदना व सोच पर दस्तक देते हैं। अपने ढंग और अंदाज से इन्हीं प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश इन लेखों का प्रयोजन है।- सुभाष सेतिया

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