Dakshin Bharat Ka Brihad Itihas (दक्षिण भारत का बृहद् इतिहास) by Hari Narayan Dube, Hindi History Book pdf
Book name- ‘Dakshin Bharat Ka Brihad Itihas (दक्षिण भारत का बृहद् इतिहास)’ (ईसा की 7वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक)
Author- Hari Narayan Dube (हरि नारायण दुबे)
Book Type- History Book (इतिहास की पुस्तक)
File Format- PDF
Language- Hindi
Pages- 410
Size- 79 Mb
Quality- good, without any watermark
दक्षिण भारत का बृहद् इतिहास
(Advanced History of South India)
“श्लाध्यः स एवं गुणवान् रागद्वेषवहिष्कृता ।
भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती ।।”
“प्राचीन वृत्तान्तों के निरूपण के सन्दर्भ में वस्तुतः वही (इतिहासकार) ला . निष्पक्ष माना जा सकता है, जिसकी दृष्टि न्यायाधीश की भाँति राग एवं देव से नि … (राजतरंगिणी, 1,7)।
एतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से दक्षिणापथ, भारतवर्ष के एक अभिन्न महत्वपूर्ण अंग के रूप में भारतीय मनीषा द्वारा सदा से ही समादृत है। महाभारत में दक्षिणापथ की
ओर जाने वाले अनेक मार्गों की स्थिति का उल्लेख करते हुए इस तथ्य की प्राचीनता को स्वीकारा गया है (‘एते गच्छन्ति बहवः पन्थानो दक्षिपथम्’, आरण्यक पर्व, 58. 2) हमारी मातभमि के भौगोलिक अङ्गों की दृढ़ सम्पृक्तता की ओर संकेत करते हुए पुराणों में कहा गया है कि ‘समुद्र के उत्तर एवं हिमालय के दक्षिण जो विशाल भूखण्ड है, वही भारतवर्ष है तथा इसमें रहने वाली जनता भारती-प्रजा के रूप में विश्रुत है –
“उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमवद्दक्षिणं च यत् ।
वर्ष यद् भारतं नाम यत्र यं भारती प्रजा।।”
(वायु पुराण, 45,75)
प्राचीन भुवनकोश-सूचियों में उल्लिखित दक्षिणापथ के अनेक जनपद, जातीय-भूमियाँ. नदियाँ, पर्वत, कलाकेन्द्र, तीर्थ एवं नगर आदि हमारी मातृभूमि के चैतन्य केन्द्र के साथ रागवद्ध थे। दक्षिणापथ-महात्म्य की व्याख्या करते हुए तत्वभेदि, वैदुप्य-मण्डित राजशेखर ने ‘काव्यमीमांसा’ में लिखा है कि “महि मती के आगे का भू-प्रदेश दक्षिणापथ है, जिसमें महाराष्ट्र माहिपक, अश्मक, विदर्भ, कुन्तल, क्रथकैशिक, शूपरिक, केरल, वानवासक चोल, दण्डक, पाण्ड्य, पल्लव, गांङ्ग, नासिक्य, कोकण, कोल्लगिरि एवं वल्लर आदि जनपट हैं। विन्ध्य का दक्षिणापाद, महेन्द्र, मलय मेकल, पाल मजर, सह्य एवं श्रीपर्वत आदि गिरिश्रृंखलाएँ इसमें ताप्ती, पयोष्णी, गोदावरी, कावेरी, भीमरथी, वेणा, कृष्णवेश, वजरा. तुंगभद्रा, ताम्रपर्णी, उत्पलावती एवं रावणगंगा आदि सरिताओं द्वारा यह भूरिसिंचित है। मलयोपत्यका में उत्पन्न होने वाले चन्दन, इलायची, कालीमिर्च, कर्पूर तथा दक्षिण पयोधि में पाई जाने वाली मणियाँ एवं मोती आदि दक्षिणापथ में मुलभ विविध पदार्थ एवं निधियाँ जगत्विख्यात हैं (सप्तदशोऽध्यायः, देशविभागः)। इन शब्दों में इस भू-भाग के गौरव के समीक्षक एवं कन्याकुमारी के छोर तक पर्यटन के श्रेय से विभृपित गजशेखर यहाँ अभिव्यजित करते हैं कि यह भूखण्ड (दक्षिणापथ) भारतीय भूगोल एवं संस्कृति की एक महत्वपूर्ण इकाई थी।
युग-युगीन सांस्कृतिक पृष्टभूमि एवं परम्परा में पल्लवित दक्षिण भारत के गौरवमय इतिहास का सम्यक् अनुशीलन एवं अपेक्षित ज्ञान एक अनिवार्य स्थिति है. जिसकी और विद्वानों का ध्यान उत्तरोत्तर अधिकाधिक आकृष्ट होता जा रहा है। हर्ष की बात है कि हाल के वर्षों में भारतीय विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में दक्षिण भारत के इतिहास के पठन-पाठन को अपेक्षित स्थान एवं महत्व प्रदान किया गया है। आंग्ल-भाषा में उत्कृष्ट ग्रन्थ तो पहले से ही चलते आ रहे थे परन्तु हिन्दी में इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों का अभाव था। डॉ० हरिनारायण दुवे का यह प्रबन्ध इस रिक्ति की पूर्ति की दिशा में एक अभिनव प्रयास है। दक्षिणापथ के ऐतिहासिक वाङ्गमय के समुपवृंहण में प्रशंसनीय योगदान के रूप में यह ग्राह्य है। प्रसादयुक्त भाषा में संरचित यह ग्रन्थ विश्वविद्यालय-स्तरीय छात्रों के लिये विशेष रूप से उपयोगी एवं मूल्यवान सिद्ध होगा तथा हिन्दी भाषा के प्रेमियों द्वारा भी समादृत होगा। इस अभिनन्दनीय ग्रन्थ-प्रणयन के निमित्त युवा पीढ़ी के जिज्ञासु डॉ० दुवे हमारे साधुवाद के भाजन हैं। आशा एवं विश्वास है कि अग्रतर सारस्वत साधना में वे इसी भाँति सतत् संलग्न रहेंगे-
‘सरस्वती श्रृतिमहतां महीयताम्’
– उदय नारायण राय
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व, विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद ।
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