Shritantraloka (श्रीतन्त्रालोक) Tr. by Paramhansa Mishra pdf

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Shritantraloka (श्रीतन्त्रालोक) Tr. by Paramhansa Mishra, Hindi ebook pdf
Translator- Paramhansa Mishra
Book Type- हिंदी पुस्तक
File Format- PDF
Language- Hindi
Pages- 653
Size- 102Mb
Quality- Good Quality, without any watermark

Shritantraloka pdf

महामाहेश्वरश्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्यविरचितः
श्रीतन्त्रालोकः [ प्रथमो भागः]

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श्रीमन्महामाहेश्वर श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य दशवी ख्रीष्ट शताब्दी के द्वैपायन व्यास थे। व्यासदेव महर्षि थे। प्रज्ञा-प्रकाशैकात्म्य के प्रतीक पुरुष थे। भारतीय सांस्कृतिक सुधा-प्रवाह के प्रवर्तक थे। आध्यात्मिकता के अधीश्वर अधीष्ट पुरुष थे। उनके विराट् व्यक्तित्व का आकलन विश्व के प्रज्ञापुरुष करते हैं।
श्रीमदभिनवगुप्त में प्रज्ञाप्रकाशक व्यक्तित्व के वैराज्यविभूषित वे सभी गुणधर्म थे, जो महर्षि व्यास में थे। सारस्वत सुरसरिता के संवाहक दोनों शिखर पुरुष थे। एक ने वैदिक सुधाधारा को महाप्रवाह प्रदान किया, तो दूसरे ने शैवतादात्म्यमयी त्रिक-कुल-क्रमकमनीया त्रिस्रोतसामृतमयी आगमिकोपनिषत्पीयूषपयस्विनी मोक्षमन्दाकिनी को प्रवाह प्रदान कर परमशिव-सामरस्य में समाहित कर तन्त्रालोकोपम ज्ञानगङ्गासागर को उजागर कर दिया।

इस परम्परा के स्वाध्याय का अवसर मुझे मिला। इसे मैं अपने जीवन का सौभाग्य मानता हूँ। प्रथम संस्करण के स्वात्म-विमर्श के द्वितीय अनुच्छेद में मैंने इस सौभाग्य-सूत्रपात की चर्चा की है। इसके लिये आराध्या की परानुकम्पामयी वात्सल्यसुधा से सिक्त और तृप्त होने के अवसर मुझे मिले। महामाहेश्वर के दिव्यतम दमकते दक्षिणामूर्ति रूप के स्वप्न में दर्शन, साथ ही पार्श्वभाग में वज्रासन पर विराजमान माहेश्वर सिंहासन के समक्ष ही ओज-ऊर्जस्वल राजानक जयरथ के दर्शन तथा श्री ईश्वर आश्रम, गुप्तगङ्गा, श्रीनगर, काश्मीर के महामाहेश्वर महामनीषी त्रिकदर्शनसुधा के आधार कलानिधि अधुनातन महामाहेश्वर लक्ष्मण जी का दीक्षा वरदान मेरे दार्शनिक जीवन के वे शैव-सन्दर्भ हैं, जिनसे मेरा स्वात्म सन्दृब्ध है।
परमात्मा के अनुग्रह अवधान के तले पले, फले और त्रिक मानस में खिले इस शिष्य के ये तीनों महापुरुष परमेष्ठि, परम और दीक्षक गुरुवर्य हैं। इनसे आज भी मैं सतत सम्पृक्त हूँ और प्रेरित हो रहा हूँ।
मुझे इस बात की परम प्रसन्नता है कि, श्रीतन्त्रालोक का स्वाध्याय सहज भाव से हो रहा है। नश्वर संसार में अविनश्वर की जिज्ञासा के समाधान के लिये मनीषा के माननीय स्तर पर भी प्रयास
और अध्यवसाय हो रहे हैं, श्रीतन्त्रालोक के प्रथम खण्ड के समाप्त हो जाने से यह स्वयं सिद्ध है। मुझे इस बात की और भी प्रसन्नता है, मेरे माध्यम से लिखे गये ‘नीर-क्षीर-विवेक-भाष्य’ को मनीषी समाज ने अपनाया और यह सिद्ध कर दिया है कि, स्वाध्याय के लिये अपनी जनभाषा का माध्यम ही उत्तम होता है। …

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