Parloka Ke Khulte Rahasya (परलोक के खुलते रहस्य) by Arun Kumar Sharma pdf

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Parloka Ke Khulte Rahasya (परलोक के खुलते रहस्य) by Arun Kumar Sharma ebook pdf

e-book- Parloka Ke Khulte Rahasya (परलोक के खुलते रहस्य)
Translated by- Arun Kumar Sharma
Book Type- spiritual (आध्यात्मिक)
File Format- PDF
Language- Hindi
Pages- 426
Size- 178mb
Quality- best, without any watermark

Parloka Ke Khulte Rahasya

‘परलोक के खुलते रहस्य’ इस पुस्तक में शामिल हैं
परामनोविज्ञान, मनोविज्ञान और योगविज्ञान पर आधारित एक मौलिक आध्यात्मिक कृति

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क्या मैं शरीर हूँ? क्या मैं शरीर के भीतर हूँ? ये दोनों महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। अपने आपमें । भारतीय ‘प्रज्ञा’ आदिकाल से इन दोनों प्रश्नों के विषयों में चिन्तन मनन करती आ रही है। जिसका परिणाम है भारतीय दर्शन और जिराका आधार है अध्यात्म । अध्यात्म का मूल उद्देश्य है शाश्वत आनन्द जिसे हम शाश्वत महासुख भी कह सकते हैं- की उपलब्धि। जैसे प्यास, पानी के अस्तित्व को प्रमाणित करती है और जैसे भूख इस बात का प्रमाण है कि भोजन कहीं अवश्य होना चाहिए। वैसे ही मनुष्य की शाश्वत आनन्द की आकांक्षा इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं सच्चिदानन्द है अवश्य । उसे ज्ञात हो या न हो, प्रत्येक सुख की आकांक्षा उसी शाश्वत महासुख की आकांक्षा है और जबतक उस महासुख की, उस शाश्वत आनन्द की अनुभूति आत्मा को नहीं हो जाती तबतक उसे प्राप्त करने के लिए आत्मा बार-बार धारण करती है शरीर। जन्म और पुनर्जन्म का एकमात्र यही मूल कारण है जिसे हम ‘धर्म’ कहते हैं। वह इसी शाश्वत सुख की ही यात्रा है इसलिए वह मनुष्य की श्वास जैसी अनिवार्य आवश्यकता है। संसार की किसी भी उपलब्धि में सुख नहीं है। वासना के पूर्ण होने का भी प्रश्न नहीं है। किसी भी वस्तु का अभाव दुख देता है। उसकी प्राप्ति भी चंचल मन को सुख नहीं दे पाती क्योंकि जैसे ही मन की कोई इच्छा पूरी होती है, मन किसी दूसरी वस्तु के अभाव का अनुभव करने लगता है। वासना अतृप्त रहती है। वह पूरी हो ही नहीं सकती। वास्तविकता तो यह है कि शाश्वत महासुख पूर्णरूप से वासना रहित होने पर ही प्राप्त हो सकता है और प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही ऐश्वर्यवान होता है और तब उसे पहली बार इस बात का अनुभव होता है कि समस्त संसार का साम्राज्य प्राप्त कर लेने पर भी भीतर का भिखारीपन नहीं मिटता यदि विचारपूर्वक देखा जाये तो धर्म उसी भिखारीपन को नष्ट करने का एकमात्र आयोजन है। धर्म भीतर से सम्राट बनाना चाहता है। धर्म की यात्रा परमात्मा के सामीप्य में पहुंचने की यात्रा है स्वयं के अतिरिक्त किसी और परमात्मा को पूजने की नहीं। मनुष्य की यही सम्भावना उसे धर्म की शरण में ले जाती है।
मनुष्य की मृत्यु के प्रति जो शोथ की भावना है वह भी धर्म को मनुष्य के लिए अनिवार्य कर देता है क्योंकि मृत्यु का बोध सर्वाधिक मनुष्य को ही होता है। पशु-पक्षियों में नहीं । पशु-पक्षियों को तो अपनी मृत्यु का पता ही नहीं चलता। केवल मनुष्य के इस बात का ज्ञान है कि किसी न किसी दिन मृत्यु का आना निश्चित है। वह आयेगी और सब कुछ छीन ले जायेगी। कुछ भी साथ न ले जाने देगी। मृत्यु के सामने मनुष्य की यह असहजता ही अमृत की खोज के लिए प्रेरित करती हैं और वही अमृत तो परमात्मा है और धर्म उसी अमृतत्व की खोज है। चाहे राम-रावण का युग हो, चाहे महाभारत का युग हो, धर्म की आवश्यकता हर समयरहती है और आज भी है। सच पूछा जाये तो वर्तमान युग में अति आवश्यकता है धर्म की। इसलिए कि पूरब और पश्चिम ने मनुष्य को दो भागों में विभक्त कर दिया है। पूरब के लिए संसार माया है, भ्रम है, व्यर्थ है। पश्चिम की दृष्टि में आत्मा एक कल्पना है, अन्धविश्वास है, इसके अलावा और कुछ नहीं। धर्म का कहना है कि मनुष्य और आत्मा दोनों साथ-साथ है। अन्तर बस इतना ही है कि एक दृश्य है और दूसरा है अदृश्य।
यदि विचारपूर्वक देखा जाये तो पूरब हो या हो पश्चिम दोनों की दिशा एक प्रकार से दयनीय ही है। पूरब अपनी अधूरी अथार्मिक धारणा के कारण ही आज भौतिक रूप से दीनहीन हो गया है और पश्चिम अपनी एकांकी दृष्टि के कारण आज हिंसा और ऊब से भर गया है। आज का सभ्य मनुष्य लाठी, हुण्डा, तीर, तलवार आदि से नहीं लड़ता, लेकिन क्या अणु बम और हाहड्रोजन बम उसी के भयंकर रूप नहीं है। पिछले तीन हजार वषों में लगभग पांच हजार युद्ध हुए हैं। जिनमें दस करोड़ लोगों की हत्या हुई है। आज भी इतनी विस्फोट सामग्री है कि हमारे जैसी एक हजार पृथ्वी को नष्ट किया जा सकता है। आज के धुरन्धर वैज्ञानिक मनीषियों का कहना है कि ये सब शान्ति और सुरक्षा के लिए है। मेरा प्रश्न है? क्या मनुष्य के भीतर कुछ परिवर्तन हुआ है? नहीं बिल्कुल नहीं कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। महाभारत काल में मनुष्य जैसा था, आज के युग में उससे भी अधिक अमानवीय और पशु हैं।
पशु क्यों? आज का मनुष्य अपने आपमें सर्वाधिक बेचैन हैं। पशु बेचैन नहीं होता। पशु आत्महत्या नहीं करता। जिस दिन पशु आत्मघात कर लेगा, समझ लेना | चाहिए कि वह पशु अधिक समय तक पशु नहीं रहेगा, मनुष्य बनना शुरू कर दिया है उसने । पशु चिन्तित नहीं है और बेचैन भी नहीं है इसलिए पशु के आत्महत्या करने का कोई कारण नहीं है।
पशु हँसता नहीं मनुष्य हँसता है। यदि आपको कोई पशु हँसता हुआ दिखलायी दे जाये तो आपकी क्या दशा होगी? स्वयं समझ सकते हैं इसलिए पशु नहीं हँसता क्योंकि वह दुखी और बेचैन नहीं है मनुष्य की तरह हँसना अपने दुख को भुलाना है। दुख को भुलाने का साधन है हँसी और यही एकमात्र कारण है कि संसार में जितना दुख बढ़ता जाता है और बेचैनी बढ़ती जाती है। उतना ही मनोरंजन के साधन भी बढ़ते जाते हैं। वर्तमान में मनुष्य को मनोरंजन के साधन देने में लगी है संसार की पचास प्रतिशत शक्ति। आज के युग में मनुष्य को जितना मनोरंजन जो दे पाता है वही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। आज के मनुष्य की सोच में कहीं कोई अवश्य बुनियादी भूल है। हमारी जो धारणा है, उसके अनुसार वह भूल यह है कि वह सोचता है कि समस्याओं के मूल कारण बाहर हैं लेकिन धर्म का कहना है कि समस्याओं की जड़ें उसके भीतर ही है। मनुष्य की अन्तिम आशा है धर्म और यदि मनुष्य ने वास्तविक अर्थों में धार्मिक होने का शीघ्र प्रयास नहीं किया तो टाला न जा सकेगा तीसरा महाविनाशकारी महायुद्ध। भारतीय थर्म की मूलभित्ति अध्यात्म है। अध्यात्म, आत्मा परमात्मा का विषय है। अध्यात्म द्वारा ही सच्चे अर्थों में धर्म की उपलब्थि और अध्यात्म को उपलब्ध होने के लिए दो मार्ग हैं योग और तंत्र। बाहर से दोनों मार्ग अलग-अलग समझ में आते हैं, लेकिन दोनों एक प्रकार से अभिन्न हैं और हैं एक दूसरे के पूरक। तंत्र मार्ग की साधना अति गम्भीर और गुह्य है रहस्यमयी तो है ही इसकी गोपनीयता को योग द्वारा ही समझा जा सकता है और उसका जो रहस्य है उसका भी उद्घाटन योग के ही द्वारा सम्भव है।
योग-तंत्र का साधना मार्ग सरल सहज नहीं, अति कंटकाकीर्ण हैं। योग-तंत्र के स्वरूप के वास्तविक ज्ञाता और सच्चे साधक उंगली पर गिने जा सकते हैं वर्तमान समय में। आज का योग, आसन और प्राणायाम तक ही सीमित होकर रह गया है। तंत्र की भी यही स्थिति है। श्मशान, मदिरा, खोपड़ी, नारी, बलि आदि से संबंधित मूर्खतापूर्ण उपद्रवी क्रियाओं तक ही सीमित होकर रह गया है तंत्र भी। इन दोनों के अलावा ज्योतिष का भी स्वरूप विकृत हो चुका है। पहले ब्राह्मणों की सम्पत्ति थी ज्योतिष। ब्राह्मणों का अधिकार था ज्योतिष पर। लेकिन अब वह सम्पत्ति और वह अधिकार छीन लिया है ब्राह्मणेत्तर जातियों ने। जिसके परिणामस्वरूप योग-तंत्र की तरह ज्योतिष भी दुर्दशा का पात्र हो गया है। योग-तंत्र और ज्योतिष, ब्रह्म विद्या है। तीनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसमें सन्देह नहीं। किसी एक की साधना बिना दोनों की सहायता से सम्भव नहीं। योग तांत्रिक साधना की पहली उपलब्धि है शाश्वत सुख अथवा आनन्द। जो मनुष्य को इहलौकिक और पारलौकिक दोनों अवस्थाओं में समान रूप से प्राप्त रहता है। दूसरी उपलब्धि है आवागमन से मुक्ति और तीसरी उपलब्धि है आत्मसत्ता प्रणाश और परमात्म सत्ता में विलीनीकरण।
में एक साधक हूँ इसमें किञ्चितमात्र भी संदेह नहीं लेकिन मेरी साधना का लक्ष्य अथवा उद्देश्य उपुर्वक्त तीनों उपलब्धियों में कोई भी नहीं है। प्रारम्भ से ही मेरा लक्ष्य रहा है तीनों ब्रह्म विद्याओं के गुह्य और गोपनीय तत्वों से परिचित होना और साथ ही उनका अनुभव भी प्राप्त करना। मैं अपने शरीर को धन्यवाद देता हूँ कि मुझे अपने लक्ष्य साधन की दिशा में प्रत्येक स्थिति और परिस्थिति में पूर्ण सहयोग दिया उसने । तरह-तरह का दुख, तरह-तरह की पीड़ा वेदना और तरह-तरह का कष्ट सहन करते हुए भी साथ नहीं छोड़ा शरीर अति उपकृत हूँ मैं अपने शरीर का क्योंकि उसके महत्व से भलीभांति परिचित मैं। लक्ष्य कोई भी हो, साधना तो साधना ही है। इस विचित्र संसार में पग-पग पर साधक के मन को आकर्षित करने के साधन बिखरे हुए हैं। उसकी चित्ताकर्षक आभा में साधक को अपने मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। वैसे बाह्य दृष्टि से बड़ा ही सरल और सहज प्रतीत होता है। किन्तु अध्यात्म का मार्ग है बड़ा ही कंटकाकीर्ण साथ ही फिसलन भरा है। जरा सी असावधानी, जरा सी चूक और जरा सी भूल सत्यानाश कर देती हैं साधक का। उसका भौतिक जीवन विषमय तो हो ही जाता है। इसके अतिरिक्त मानसिक स्थिति भी हो जाती है एक प्रकार से विकृत। यदि कोई साधक यह सोचता समझता है कि संसार में उसका कोई अपना है, मार्ग में उसका कोई सहयोगी है तो यह उस भारी भ्रम है और है। भारी भूल। यहां न कोई किसी का अपना है और न तो कोई है पराया। न कोई किसी को सहयोग देता है न किसी का कोई विरोधी ही है। न देई किसी का आँस ही पोंछने वाला है और न तो कोई है यह कहने वाला कि घबड़ाओ मत मैं हूँ न । सभी अपना-अपना पिछले जन्म का प्रारब्ध भोगने आये हैं और भोग भी रहे हैं और साथ ही साथ अगले जन्म के लिए प्रारब्ध का निर्माण भी कर रहे हैं। सर्वत्र नियति की लीला है और सर्वत्र है प्रारब्ध का खेल। कुछ तो आपको अपने विचारों के अनुकूल मिलेंगे तो कुछ मिलेंगे प्रतिकूल भी। कुछ में मिश्रित भाव भी होंगे। कुछ ऐसे भी होंगे जो दिखने में तो कुछ होंगे लेकिन अनुभव और व्यवहार में कुछ और ही होंगे। जैन आज कैसा है? वह कल कैसा व्यवहार करने लग जायेगा यह कोई नहीं कह सकता।
जीवन रहस्यमय है। जीवन में कब कौन सी घटना घट जायेगी? कब क्या से क्या हो जायेगा? इसका पूर्वाभास भी नहीं हो पाता। घटनाएँ घटती रहती हैं और अपनी स्मृतियों का ढेर छोड़ती रहती हैं और हम हैं कि उन ढेरों के नीचे बराबर चले जाते हैं और अन्त में आ जाती है मृत्यु और स्मृतियों के ये सारे के सारे ढेर जो हमारी चिता के साथ जल कर हो जाती हैं भस्म । साधना से संबंधित सभी प्रकार के लोगों के पत्र आते हैं और फोन भी आते हैं मेरे पास। साधना के प्रति उनकी जिज्ञासा और कौतूहल स्वाभाविक है। प्रायः सभी की धारणा समान ही होती है। किसी देवी-देवता की पूजा, पाठ, जप, हवन, व्रत, ध्यान आदि को ही समझा जाता है साधना । लौकिक दृष्टि से ये सब बाह्य उपासना है इसके अलावा और नहीं। किसी भी प्रकार की उपासना यदि ज्ञान से परिपक्व नहीं है तो उसे व्यर्थ पझा जायेगा।

जहाँ तक प्रश्न साधना का है। उसका संबंध सीधे आध्यात्मिक विषयों से है। साधना का मुख्य विषय है- आसुरी सम्पदा का त्याग और दैवी सम्पदा की उपलब्धि। (लेखक के ‘तंत्रम्’ पुस्तक में इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। हैं) अध्यात्म मार्ग की यात्रा साधक के लिए सावधानी और धैर्यपूर्वक अकेले की यात्रा है। पग-पग पर परीक्षा होती रहती है। अम और सन्देह उत्पन्न करने वाले लोग भी मिलते रहते हैं। वातावरण कभी-कभी विपरीत बनने लग जाता है। साधक को, स्वयं को सावधानीपूर्वक अपनी गति को संयमित रखकर आगे बढ़ना पड़ता है। हर मोड़ पर अपने कार्यकलापों की पूरी ईमानदारी से समीक्षा करनी पड़ती है। वैसे गन्तव्य की दूरी बहुत अधिक नहीं है जहाँ उसे पहुँचना है। जहाँ चिरशान्ति है फिर भी साधक के लिए वहां तक पहुँचाना बड़ा ही कठिन है क्योंकि एक तो फिसलन भरा मार्ग, गिरने की आशंका, पतित होने का भय और दूसरा अमित करने वाले चौराहे । किधर जाएं और किधर न जाएं ? निर्णय करना कठिन होता हैं इसलिए गुरु और इष्ट का होना आवश्यक है। गुरु मार्गदर्शक का काम करता है और इष्ट रक्षा करता है। साधक को यह धारणा नहीं बना लेनी चाहिए कि प्रारब्ध का मायाजाल केवल संसारी लोगों के लिए ही है साधकों के लिए नहीं। ऐसा मान लेना भारी भूल है।
संसार में साधक का संघर्ष सर्वाधिक जुझाव होता है। उसे हर समय और हर पल संघर्ष करना पड़ता है। माया मोह के तीन प्रवाह में कहीं वह न जाये इसका हर समय ध्यान रखना पड़ता है। उससे कोई ऐसा कर्म न हो जाये जो उसके प्रारब्ध को और अधिक पुष्ट बना दे। वह अपने आपको प्रारब्ध की पकड़ से मुक्त कर ले। इसी बात की तो साधक साधना करता है। जिस प्रक्रिया में व्यक्ति स्वयं
साधता है उसी प्रक्रिया का नाम है साधना लेकिन सामान्य व्यक्ति की साधना और साधक की साधना में पृथ्वी और आकाश का अन्तर है।
सामान्य संसारी व्यक्ति की साधना प्रारब्ध की ग्रन्थियों को और भी दृढ़ मजबूत और अधिक कसने का कार्य करती है और जबकि साधक उन ग्रन्थियों को धीरे-धीरे खोलते हुए उससे मुक्त होने का प्रयास करता है और एक दिन मुक्त भी हो जाता है पूर्णरूप से। साधना आशक्तियुक्त और अहंकार से भरी होने के कारण बंधन का कारण बन जाती है लेकिन दूसरे की साधना समर्पणयुक्त कामना वासनारहित और आशक्ति रहित होने के कारण कर्ता को भव बंधन से मुक्त बनाती हैं। सच्चे साधक को दोहरा प्रहार झेलना पड़ता है। पहला हैं भौतिक अथवा लौकिक प्रहार और दूसरा है स्वयं के भीतर से उठती हुई वासना, कामना और विकारों का प्रहार। दोनों प्रकार के प्रहार साधारण नहीं हैं लेकिन सामना तो करना ही पड़ेगा साधक को । जरा सी असावधानी दुष्परिणाम का कारण बन जाती है। राम-रावण और महाभारत जैसा युद्ध साधक के भीतर हमेशा होता रहता है।
‘परलोक के खुलते रहस्य’ को ही लीजिए। मेरे जीवन की सर्वाधिक रहस्यमयी और विलक्षण पुस्तक है यह। पूरे बीस वर्ष की साधना यात्रा का है। परिणाम। उसे संयोजित करने और लिपिबद्ध करने में ही लग गये पांच वर्ष । सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यदि मेरे पुत्र मनोज कुमार शर्मा का सहयोग औरआस्था प्रकाशन की प्रेरणा उपलब्ध न हुई होती तो ‘परलोक के सुलते रहस्य’ पुस्तक काल के तिमिराच्छन्न अन्धकार में ही पड़ी रहती न जाने कबतक।
अभीतक तो नहीं, लेकिन अब मुझे यह स्पष्ट रूप से करना आवश्यक हो गया है कि अनुभवों और अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से ठीक-ठीक व्यक्त कर पाना कठिन कार्य है। भाषा पर अधिकार न हो तो और भी जटिल हो जाता है यह कार्य। मैंने इस दिशा में कितना संघर्ष किया है मानसिक स्तर पर इसे बतलाया नहीं जा सकता और न तो किया ही जा सकता है लिपिबद्ध ही। मेरी अबतक की प्रत्येक पुस्तक और प्रत्येक रचना के पीछे संघर्ष की, कष्ट की, पीड़ा की और न जाने कितने लौकिक पारलौकिक प्रहारों की लम्बी कथा व्यथा भरी है और है मर्मस्पर्शी । जिसे भला कौन जान समझ सकता है सिवाय मेरी आत्मा के।
‘परलोक के खुलते रहस्य’ भी एक ऐसी ही पुस्तक है जो मेरे आध्यात्मिक जीवन की एक संघर्ष कथा है। यदि आप भी संघर्ष करने के लिए तैयार हैं और तैयार हैं प्रहारों को सहने के लिए तो अवश्य अपनाये इस कंटकाकीर्ण साधना मार्ग को। मार्ग खुला है आपके लिए। – अरुण कुमार शर्मा

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