Sindoor Ki Holi (सिन्दूर की होली) Hindi Natak pdf

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Sindoor Ki Holi (सिन्दूर की होली) Hindi Natak pdf
Author- Shri Lakshminarayan Mishra (श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र),
Book Type- समस्या-नाटक ग्रंथ
File Format- PDF,
Language- Hindi,
Pages- 119,
Size- 3mb,
Quality- nice, without any watermark

Sindoor Ki Holi (सिन्दूर की होली) pdf

‘सिन्दूर की होलीइस किताब के बारे में कुछ शब्द

हिन्दी साहित्य के अन्य अंगों की भाँति नाटक’ का अंग भी अभी तक कमज़ोर और शिथिल है। हिन्दी नाटकों का आरंभ एक प्रकार से बाबू हरिश्चन्द्र के समय में ही हुआ । भारतेन्दु-काल के नाटककारों में लक्ष्मण सिंह, प्रतापनारायण मिश्र, अम्बिकादत्त व्यास, श्रीनिवास दास, वदरीनारायण चौधरी आदि हैं। उन सज्जनों ने देश की धार्मिक, नैतिक और सामाजिक परिस्थितिओं पर इतना ध्यान दिया कि जीवन के दसरे अंगों को सोचने अथवा प्रकाश डालने का उनको अवसर हो न रहा। उनके नाटकों के विषय प्रायः ऐसे थे जिनकी ओर सर्वसाधारण का ध्यान आकर्षित करना अत्यावश्यक था। इसी ध्येय को रख कर उन्होंने ऐसे नाटकों की रचनायें की जिनके द्वारा हिंदू जनता में स्वाभिमान, वीरता, धार्मिकता आदि के भाव उत्पन्न हों; अथवा मद्यपान, मांसाहार, पाखंड, छूत, वेश्यानुराग आदि दोषों की ओर से घृणा जाग्रत हो । जो कुछ मौलिक कृतियाँ उस समय से हुई वे प्रायः उपर्युक्त ध्येय के साधन अथवा केवल मनोरंजन के निमित्त हुई। इसके अतिरिक्त अनुवादों की भी धूमधाम रही । संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला के नाटकों का अनुवाद किया गया।…
प्रस्तुत नाटक के रचयिता श्री लक्ष्मीनारायण जी भी इव्सन, वरनर्डशा आदि प्रमुख नाटककारों के विचारों और भावनाओं से प्रेरित होकर हिन्दी नाट्य साहित्य में नवीन धारा का प्रचार करने को चेष्टा कर रहे हैं। अपने पूर्व प्रकाशित नाटक “ मुक्ति का रहस्य” की भूमिका में उन्होंने अपने विचार जोरदार शब्दों में स्पष्ट कर दिये हैं। आप कहते हैं कि “बुद्धिवाद किसी तरह का हो-किसी कोटि का हो-समाज या साहित्य को हानि नहीं कर सकता।” हिंदी के समालोचकों को लक्ष्य करके आप लिखते हैं “इन दिनों हमारे समालोचक साहित्य या कला के भीतर सबसे पहिले यह खोजने लगते हैं कि इन चीजों में लोकहित का उपदेश या सदाचार की व्याख्या कहाँ और किस रूप में हुई है ” किन्तु ” इन बातों से कला का संबन्ध ? कलाकार इस तरह का उपदेशक तो नहीं है ? वह जो कुछ भी कहना चाहता है-उसके निजी प्रयोग की बातें होती हैं। क्या होना चाहिये, क्या न होना चाहिये ? इन बातों का सवाल तो यहाँ नहीं उठता। यहाँ तो जो है, है ।….. (कला) अनन्त सहानुभूति है जिसकी एक एक नजर में कल्याण की दुनिया बसती चलती है।”…..” इस लिए जिन्दगी की कोई भी संकीर्ण परिपाटी, धर्म या सदाचार की कोई भी निश्चित कसौटी, साहित्य और कला की कोई भी प्रभाव-शालिनी व्याख्या आँख मूंद कर स्वीकार कर लेना यही नहीं कि व्यक्तिगत विकास में बाधा डालेगी, एक प्रकार से घातक भी होगी।” तत्वतः ये बातें ठीक हैं किन्तु इनको व्यावहारिक बनाने में अनेक उलझनें और कठिनाइयाँ हैं। युवक मिश्र जो भी उनको अनुभव करते हैं “जैसा कि उनकी उपर्युक्त भूमिका से प्रतीत होता है। इन समस्याओं का हल करना सरल काम नहीं। अतएव कोई आश्चर्य नहीं कि ये भविष्य के नीहार से आक्रान्त है।

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मिश्र जी के नाटकों में न तो अनेक पात्र हैं, न गाने या कविता पाठ की सामग्री और न अनावश्यक दृश्यों का परिवर्तन । उनके नाटकों का पट-विस्तार भी इतना नहीं कि उसमें विभिन्न देश, काल, व्यवस्थाओं और घटनाओं को विभ्रममयी भरती हो । आधुनिक योरपीय शैली के अनुकूल उनमें गिने-चुने आवश्यक पात्र हैं और व्यापार भी सुसंगत और सुनियंत्रित है । आपके कुछ शुरू के नाटकों में कहीं कुछ अनावश्यक बातों और विस्तार का दोष आगया था किन्तु वह अब धीरे धीरे जा चुका है।
उपर्युक्त विशेषताएँ प्रस्तुत नाटक “सिन्दूर को होली” में भी है। इसमें रंग-मंच की रचना और उसके संचालन के सम्बन्ध में भी सुगमता की ओर पहले से अधिक ध्यान दिया गया है। नाटक का समय थोड़ा है। घटना स्थल भी एक ही है केवल थोड़ा-सा हो हेर-फेर है। इसके पात्र भी पाँच या छः हैं । प्रत्येक पात्र का अपना अपना व्यक्तित्व है। प्रत्येक का विकास अपने अपने ढंग का है। प्रत्येक की भावना और उसके व्यक्तित्व का चित्रण सहानुभूति-पूर्वक किया गया है। यहाँ तक कि मुरारीलाल का भी चित्रण सहानुभूति शून्य नहीं। मनोरमा और चन्द्रकला दोनों शिक्षित स्त्रियाँ हैं। उनमें कोमलता, सहिष्णुता और उच्चादर्श का अद्भुत संमिश्रण है। दोनों में अनुराग और त्याग का चमत्कार है। चन्द्रकला ने प्रेम का जो आदर्श रखा वह पौराणिक चित्रों से कम नहीं। मनोरमा ने दूसरा आदर्श खड़ा करने का प्रयत्न किया किन्तु मनोजशंकर ऐसी विक्षिप्त दशा में था कि वह उससे सहयोग न कर सका। दोनों चित्रों का सूक्ष्म भेद नाटक रचयिता ने चन्द्रकला के द्वारा कहलवा दिया-“तुम्हारो मजबूरी पहले सामाजिक फिर मानसिक हुई, मेरी मजबूरी प्रारम्भ से ही मानसिक हो गई।” दूसरे अंक में मनोरमा और मनोजशंकर का और तीसरे अंक में चन्द्रकला और मनोरमा का वार्तालाप ओज और विचारपूर्ण है।
मिश्र जी का प्रयत्न सर्वथा सराहनीय है। उनका यह प्रस्तुत नाटक कलागत प्रौढ़ता और विवेक का द्योतक है। सम्भव है विशेष छान-बोन करने पर किंचित दोष भी देख पड़े लेकिन इसके लिए तो-“एकोहि दोषो गुण सन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांकः” और इसलिए उनकी रचनाएँ आदरणीय हैं। नाटक साहित्य में वह युग प्रवर्तन करना चाहते हैं । एतदर्थं हम उनका स्वागत करते हैं और आशा करते हैं कि हिन्दी संसार भी उनकी कृतियों का आदर करेगा; उनके उत्साह को बढ़ाकर उनको अपने आदर्श की प्राप्ति में और हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि में सहायता देगा। -रामप्रसाद त्रिपाठी (डी० एस-सी.)

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