Gaban (गबन) by Munshi Premchand Hindi Novel ebook pdf
e-book novel- Gaban (गबन)
Author- Munshi Premchand
File Format- PDF, Epub, Mobi
Language- Hindi
Pages- 236
Quality- nice, without any watermark
‘गबन’ मुंशी प्रेमचंद के सबसे लोकप्रिय उपन्यास में से एक, यह पहली बार 1931 में प्रकाशित हुआ था। उपन्यास रामानाथ की कहानी कहता है, एक आकर्षक लेकिन नैतिक रूप से कमजोर युवक। गबन ने भारतीय मध्यवर्गीय समाज की एक चित्तकार्षक तस्वीर दी।
कहानी का शुरुआत-
बरसात के दिन हैं, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं। रह-रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग में झूला पड़ा हुआ है। लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी। दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा। इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानो चिंताओं को हृदय से धो डालती हैं। मानी मुरझाए हुए मन को भी हरा कर देती हैं। सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं। घानी साडियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।
इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी -बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, खूबसूरत गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों के लट्ट और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से बोली-अम्मां, मैं यह हार लूगी।
मां ने बिसाती से पूछा-बाबा, यह हार कितने का है – बिसाती ने हार की रूमाल से पोंछते हुए कहाखरीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।
माता ने कहा-यह तो बडा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी।
बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा-बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मि
जाएगा! माता के ह्रदय पर इन सहदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।
बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर व सारे गांव में नाचती गिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी। महाशय दीनदयाल प्रयाग के छोटे – से गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोडा, कई गाएं- – भैसें। वेतन कुल पांच रूपये पाते थे, जो उनके तंबाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्ह की लडकी थी। पहले उसके तीन भाई और थे, पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता–तेरे भाई क्या हुए, तो वह बडी सरलता से कहती-बडी दूर खेलने गए हैं। कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अंदर तीनों लडके जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूक – फूककर पांव रखते, दूध के जले थे, छाछ भी फूक – फूककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब? दीनदयाल जब कभी प्रयाग जात, ता जालपा क लिए काइ न कोई आभूषण जरू लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुडियां और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी।..
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